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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

रूपमें रहते तो वहाँ हिन्दुस्तानियोंको बसाये जानेके विरोधमें कभी आन्दोलन न किया जाता ।

अब इसके अतिरिक्त जो कुछ बच रहता है वह तो केवल व्यापार और वर्ण है। हजारों गोरे यह लिख चुके हैं और मान चुके हैं कि हिन्दुस्तानियोंके व्यापारसे छोटे अंग्रेज व्यापारियोंको नुकसान पहुँचता है और गेहुआ रंगसे गोरोंके मनमें फिल- हाल गहरी घृणा बैठ गई है। उत्तर अमरीकामें कानूनकी दृष्टिसे सबको समान अधिकार प्राप्त हैं, किन्तु वहाँ भी बुकर टी० वाशिंग्टन'-जैसा उच्च पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त, अत्यन्त चरित्रवान् ईसाई और पाश्चात्य सभ्यतामें पूर्णत: दीक्षित मनुष्य राष्ट्रपति रूजवेल्टके दरबारमें नहीं जा सका था और आज भी नहीं जा सकता । अमेरिकामें बसे हुए हब्शी पाश्चात्य सभ्यताको स्वीकार कर चुके हैं और ईसाई भी बन गये हैं । किन्तु उनकी चमड़ीका काला वर्ण उनका अपराध है । उत्तरमें अमेरिकाके गोरे उनके प्रति असम्मानका व्यवहार करते हैं और दक्षिणमें उनपर किसी अपराधका सन्देह होनेपर जीवित ही जला देते हैं। दक्षिण अमेरिकामें इस दण्डनीतिका एक खास नाम भी है जो अंग्रेजी भाषामें प्रचलित हो गया है। वह है " लिंच लॉ" । 'लिच लॉ' के मानी हैं, वह दण्डनीति जिसके अनुसार पहले सजा दी जाती है, पीछे अपराधका विचार किया जाता है। यह प्रथा " लिंच" नामके व्यक्तिसे चली है और उसी नामसे इसे पुकारा जाता है ।

इससे पाठक समझ सकेंगे कि तात्त्विक कहे जानेवाले ऊपरके तर्कोंमें अधिक तथ्य नहीं । किन्तु वे इससे यह अर्थ भी न निकाल लें कि जिन लोगोंने उक्त तर्क दिये हैं उन्होंने अपना विश्वास अन्यथा होनेपर भी ऐसा किया है। उनमें से बहुत- से सचाईसे अपने तर्कोंको तात्त्विक मानते हैं । सम्भव है कि यदि ऐसी ही स्थिति में हम भी हों तो शायद ऐसे ही तर्क दें । 'बुद्धि कर्मानुसारिणी' इस उक्तिका मूल कोई ऐसी ही परिस्थिति होगी। ऐसा अनुभव किसे नहीं हुआ होगा कि हमारी अन्तर्वृत्ति जैसी बन जाती है हमें वैसे ही तर्क सूझते हैं और यदि ये तर्क दूसरोंको स्वीकार न हो सकें तो उससे हमारे मनमें असन्तोष, अधैर्य और अन्तमें रोष उत्पन्न होता है ।

मैंने यहाँ इतना सूक्ष्म विवेचन जानबूझकर ही किया है। मैं चाहता हूँ कि पाठक विभिन्न दृष्टियोंको समझें और यदि वे अबतक इन विभिन्न दृष्टियोंको मान देने और समझने के अभ्यस्त न हों तो अब उसके अभ्यस्त बनें । सत्याग्रहका रहस्य ज्ञानने और विशेष रूपसे सत्याग्रहका प्रयत्न करनेके लिए ऐसी उदारता और ऐसी सहिष्णुता बहुत आवश्यक है । इनके बिना सत्याग्रह नहीं किया जा सकता। मैंने यह पुस्तक केवल इसी हेतुसे नहीं लिखी है। इसको लिखनेका हेतु यह भी नहीं है कि मुझे दक्षिण आफ्रिकाके इतिहासका एक प्रकरण लोगोंके सम्मुख रखना है। किन्तु इसको लिखनेका हेतु यह है कि मैं जिस वस्तुके लिए जीवित हूँ, जीवित रहना चाहता हूँ और मानता हूँ कि जिसके लिए मैं प्राण देनेके लिए भी तैयार हूँ, वह वस्तु कैसे

१. अमेरिकाकी सुप्रसिद्ध शिक्षा संस्था टेस्केनी कालेजके प्राध्यापक ।

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