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ट्रान्सवालके भारतीय

मतलब था- उन्हें व्यापार करनेके अधिकारोंसे वंचित करना। परन्तु १८८४ का लन्दन-सम- झौता, जो दूसरे कारणोंसे अब इतना प्रसिद्ध हो गया है, उसके सामने घूरने लगा। यह समझौता दक्षिण आफ्रिकाके वतनियोंको छोड़कर शेष सब लोगोंके व्यापार आदिके अधिकारोंका संरक्षण करता है। परन्तु सरकार किसी बातसे विचलित नहीं हुई और, बोअर-सरकारके ही योग्य एक तर्कसे, उसने भारतीयोंको वतनी शब्दकी व्याख्यामें शामिल कर देनेका संकल्प किया। परन्तु यह कार्य उपकारशील उच्चायुक्त सर हक्युलिस रॉबिन्सनको भी बहुत ज्यादा लगा। उन्होंने सरकारको सूचित किया कि ब्रिटिश भारतीयोंको “दक्षिण आफ्रिकाके वतनी" परिभाषामें शामिल नहीं किया जा सकता। परन्तु (और यहाँ पहली भारी गलतीपर ध्यान दीजिए) भारतीयोंके खिलाफ जो आरोप उनकी नज़रमें लाये गये थे उनकी छानबीन किये बिना ही वे सम्राज्ञी-सरकारको यह सलाह देनेके लिए तैयार हो गये कि वह समझौतेमें ऐसा संशोधन मंजूर कर ले, जिससे बोअर-सरकार भारतीय-विरोधी कानून बना सके। तथापि, लॉर्ड डर्बी ज्यादा चतुर निकले। वे उस सुझावको स्वीकार करनेके बदले ट्रान्सवाल-सरकारको लोक-स्वास्थ्यके हितमें वैसे कानून बनाने देनेको तैयार हो गये। शर्त यह थी कि २५ पौंडी कर घटा कर ३ पौंडका कर दिया जाये और यह एक धारा जोड़ दी जाये कि सफाईके कारणोंसे भारतीयोंको पृथक् बस्तियोंमें रहनेके लिए बाध्य किया जा सकता है। इस तरह, उन्होंने भी आरोपोंकी छानबीन करनेके बदले ट्रान्सवाल-सरकारने जो-कुछ कहा उसे सही मान लिया और सहज ही भारतीयोंके जमे हुए हितोंका सौदा कर डाला। वे शुरूसे आखिरतक उच्चायुक्तके भेजे हुए एक खरीतेसे उत्पन्न इस भ्रममें रहे कि जो कानून तथाकथित कुलियों आदि पर लागू होगा उससे इज्जतदार भारतीय व्यापारी अछूते रहेंगे।

परन्तु, कानूनके पास होते ही औपनिवेशिक कार्यालयका भ्रम टूट गया। जिन व्यक्तियोंके बारेमें समझा गया था कि वे बरी रखे गये हैं, उन्हें भी बस्तियोंमें हट जानेका आदेश दिया गया। और उन्होंने अपने आपको अचल सम्पत्ति खरीदने और रेलगाड़ियोंके पहले या दूसरे दर्जेमें यात्रा करनेके अधिकारोंसे वंचित तथा आम तौरपर असभ्य' जूलू लोगोंके वर्गमें शामिल पाया। यह बात कि, ट्रान्सवाल-सरकारसे इन लोगोंको अछूता छोड़ रखनेका वादा करा लिया जाये, न तो उच्चायुक्तको सूझी और न ब्रिटिश मन्त्रालयको ही। कानून बनानेकी अनुमति देते समय उन्होंने मनमें जो बात रख छोड़ी थी वह गणराज्य सरकारके लिए बन्धन- कारक नहीं हो सकती थी। और यह बिलकुल स्वाभाविक था। इसपर बातचीत और लिखा- पढ़ीका एक सिलसिला चला-- - एक ओर भारतीयों व ब्रिटिश एजेंटके बीच और दूसरी ओर उच्चायुक्त व ट्रान्सवाल-सरकारके। इस सम्बन्धमें कहना ही होगा कि उच्चायुक्तने, अधूरे उत्साहसे ही क्यों न हो, खोई हुई बाजी फिर जीतनेकी कोशिश की। फिर भी, बहुत स्वाभा- विक है कि, ट्रान्सवाल-सरकारने शुरूसे आखिरतक भारी शिकस्त दी है। लॉर्ड रिपन उस समय पदासीन हुए जबकि सारी चीज़ एक महा गड़बड़-घोटालेमें परिणत हो चुकी थी। और उन्होंने कानूनोंकी व्याख्याके सम्बन्धमें पंच-फैसला करानेका सुझाव दिया। परन्तु, दुर्भाग्यवश तब भी सच्चा प्रश्न अछूता छोड़ दिया गया। जो लोग निर्णय करनेके अधिकारी हैं उनका कहना है कि मामलेका अनुरोध-पत्र बड़ा ढीला लिखा गया और एक ऐसे सज्जनको - अर्थात्, ऑरेंज फ्री स्टेटके मुख्य न्यायाधीशको जो दूसरी दृष्टियोंसे कितने भी आदरणीय क्यों न हों, भारतीयोंके विरुद्ध भारी पक्षपातके पोषक हैं, पंच चुना गया। यहाँ क्षेपकके तौरपर यह कहा जा सकता है कि इस पंच-फैसलेका उपयोग अध्यक्ष क्रूगरने दोनों सरकारोंके बीचके अन्य विवाद-ग्रस्त प्रश्नोंको पंचके सुपुर्द करनेके लिए उदाहरणके तौरपर किया


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