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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

है; और इस असमंजसकी स्थितिसे मुक्ति पानेके लिए श्री चेम्बरलेनको जरूर ही कई आधे- घण्टे चिन्तामें बिताने पड़े होंगे। पंच बैठा, और उसने भी इस प्रश्नपर विचार-विमर्श करना उचित नहीं समझा कि सारेके सारे भारतीयोंपर गन्दगीके आरोपका कोई आधार है या नहीं। पंचको व्यापकतम अधिकार प्राप्त थे। अतः उन्होंने उनका जी खोलकर उपयोग किया और एक ऐसा निर्णय कर दिया, जिससे भारतीय बिलकुल जैसेके-तैसे पड़े रह गये। उनसे कहा गया था कि दोनों सरकारोंके बीच जो खरीते चले थे -वे खरीते जिनपर कोई न्यायाधिकरण विचार नहीं कर सकता था, परन्तु वे बहुत ठीक तरहसे कर सकते थे -- उनकी दृष्टिसे, वे कानूनोंकी व्याख्या कर दें, यह बता दें कि वे किन लोगोंपर लागू होते हैं और "निवास" शब्दका अर्थ क्या है। (अगर पंचके सामने पेश किया गया आखिरी प्रश्न बम्बईमें हँसीका कारण बनता है, तो मेरा जवाब यह है कि, दक्षिण आफ्रिका बम्बई नहीं है।) परन्तु पंच महाशयने, हालाँकि वे एक विद्वान वकील रहे हैं, वैसा कुछ नहीं किया, बल्कि अपना काम ट्रान्सवालकी अदालतोंको सौंप दिया। अर्थात्, उन्होंने फैसला किया कि कानूनोंको व्याख्या सिर्फ वे अदालतें ही कर सकती है।

जैसे ही वह बहुमूल्य निर्णय प्रकाशित हुआ, भारतीयोंने उपनिवेश-मन्त्रीसे निवेदन किया कि उसे स्वीकार न किया जाये। उन्होंने विरोध भी व्यक्त किया कि इन सब कार्रवाइयोंमें -पंचके चुनावमें भी उनकी कोई सुनवाई नहीं की गई। विषयको बारीकियाँ न समझनेवालोंको ऐसा मालूम होगा कि श्री चेम्बरलेनने पंचसे जो यह आग्रह किया कि वह खरीतोंकी दृष्टिसे कानूनोंकी व्याख्या कर दे, उसमें कोई गलती नहीं थी। परन्तु भारतीयोंने यह साबित करने के लिए राशिके-राशि प्रमाण पेश किये कि कानूनोंको गलतबयानीके आधारपर मंजूर कराया गया है; गन्दगीका आरोप निराधार है-ट्रान्सवालके तीन प्रतिष्ठित डॉक्टरोंने प्रमाणित किया है कि भारतीय उतने ही अच्छे ढंगसे रहते हैं, जितने कि यूरोपीय, एकने तो यहाँ तक कहा है कि वर्गकी तुलनामें वे यूरोपीयोंकी अपेक्षा ज्यादा अच्छे ढंगसे और ज्यादा अच्छे मकानोंमें रहते है; -और सच्चा कारण, जिसे बराबर दबाकर रखा गया है, व्यापारिक ईर्ष्या है। इसका नतीजा श्री चेम्बरलेनसे यह प्रमाणपत्र प्राप्त कर लेना हुआ कि भारतीय समुदाय 'शान्तिप्रेमी,' कानूनका पालन करनेवाले और पुण्यशील लोगोंका है। वे निस्सन्देह उद्यमी और बुद्धिमान तथा अदम्य लगनके लोग हैं। परन्तु प्रमाणपत्र एक चीज़ है, राहत दूसरी। पिछले वर्ष जो परीक्षात्मक मुकदमा चला था उसकी याद अभी जनताके मनमें ताजी है। और, स्मरण किया जा सकेगा कि, उसका नतीजा कानूनोंकी वही व्याख्या हुआ, जिसका अनुमान भारतीयोंके उपर्युक्त प्रार्थना- पत्रमें पहले ही किया जा चुका था। अर्थात्, नतीजा यह था कि प्रिटोरियाके उच्च न्यायालयके न्यायाधीशोंके मतानुसार, "निवासके लिए" शब्दोंका अर्थ "निवास और व्यापारके लिए" है। अतएव, ट्रान्सवालके अभागे भारतीयोंके लिए आशाकी जो अन्तिम किरण बच गई थी वह भी. दुःखान्त नाटकके इस अन्तिम अंकके साथ विलुप्त हो गई। ट्रान्सवाल-सरकारने भारतीयोंको पृथक् बस्तियोंमें हटानेकी धमकियाँ देते हुए सूचनाओंपर सूचनाएँ जारी की है। इससे उनका व्यापार अस्तव्यस्त हो गया है, उनके मन उद्विग्न हो उठे हैं और अब वे तलवारकी धारपर रह रहे हैं। उपनिवेश-मन्त्री और सर विलियम वेडरबर्नके बीच इस वर्षके आरम्भमें हुआ पत्र-व्यवहार अन्धकारमें एक उज्ज्वल चिनगारीके समान प्रतीत हुआ था; परन्तु, अफसोस ! वह चिनगारी ही था, क्योंकि उपर्युक्त भारी-भरकम सूचनाने फिरसे आतंक पैदा कर दिया है और वे बेचारे जानते नहीं कि उनकी स्थिति क्या है और वे क्या करें। यह सूचना अन्तिम

१. देखिए : 'पत्र : विटिश एजेंटको,' फरवरी २८, १८९८ ।

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