पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 3.pdf/१३

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सात

नहीं सकते थे यह बात नहीं है. . . किन्तु दक्षिण आफ्रिकाके अटपटे प्रश्नोंपर मेरे रहते हुए स्वतन्त्र लेख लिखनेका उन्होंने साहस ही नहीं किया। मेरी विवेकशक्तिपर उन्हें अतिशय विश्वास था इसलिए लिखनेके सारे विषयोंपर सम्पादकीय लिखनेका बोझ मुझपर डाल देते थे। में पत्रका सम्पादक नहीं था फिर भी उसकी सामग्री की सारी जिम्मेदारी मेरी थी। (गुजराती आत्मकथा, १९५२, पृष्ठ २८२)।

इसके बाद गांधीजी हमें इंडियन ओपिनियनका महत्त्व बताते हैं :

जबतक [ यह पत्र] मेरे हाथमें रहा तबतक इसमें होनेवाले फेरफार मेरी जिन्दगी के फेरफारोंको सूचित करते थे। जैसे अब यंग इंडिया और नवजीवन मेरे जीवनके कितने ही अंशोंका निचोड़ हैं, इसी प्रकार उस समय इंडियन ओपिनियन था। मैं प्रति सप्ताह उसमें अपनी आत्मा उँडेलता और जिसे सत्याग्रह मानता उसे समझानेका प्रयत्न करता। जेलके समयको छोड़कर दस वर्षों तक, अर्थात् १९१४ तक इंडियन ओपिनियनका कदाचित् ही कोई ऐसा अंक होगा जिसमें मैंने कुछ न लिखा हो। इसमें एक भी शब्द मैंने बिना विचारे, बिना तोले लिखा हो, या किसीको केवल खुश ही करने के लिए लिखा हो, या जान-बूझकर अतिशयोक्ति की हो, ऐसा मुझे याद नहीं है। मेरे लिए यह पत्र संयमको तालीम बन गया और मित्रोंके लिए मेरे विचारोंको जाननेका साधन ... । (गुजराती आत्मकथा, १९५२, पृष्ठ २८३-८४)।

इस अवधिमें दक्षिण आफ्रिकामें भारतीयोंके मसले और गांधीजी द्वारा उन्हें हल करनेके प्रयत्नकी पद्धति पहले वर्षोंके अनुसार रही। नये भारतीय विरोधी कायदे, या जो थे, उनमें जाति- भेद पर आधारित प्रतिक्रियावादी संशोधन पास किये जाते रहे या लागू किये जाते रहे, और उनका विरोध करना पड़ा। इन कायदोंका प्रवास-परवानों, बस्तियों और बाजारों, गिरमिटिया मजदूरों, अनुमतिपत्रों और मताधिकार पर असर पड़ा। ये सब बातें दक्षिण आफ्रिकी भार- तीयोंके सामाजिक और आर्थिक जीवनको छूती थीं। इन सबपर गांधीजीने अपने उस समयके तरीकेके मुताबिक नगरपरिषदों, अनुमतिपत्र कार्यालयों, प्रवास-विभाग, एशियाई विभाग, स्थानीय विधानसभाओं, गवर्नर, उच्चायुक्त और उपनिवेश-कार्यालयके अधिकारियों को प्रार्थनापत्र भेजनेकी पद्धतिका अनुसरण किया। अपेक्षाकृत बड़ी, जिन नीतिगत बातोंका सम्बन्ध शाही सरकारसे होता था उनको लेकर उपनिवेश सचिवको प्रार्थनापत्र भेजते थे, अथवा उनतक शिष्टमण्डलका नेतृत्व करते थे। जिस अवसरपर वे भारत सरकारका हस्तक्षेप चाहते थे, भारतके वाइसराय के पास मामला ले जाते थे।

जिस दूसरे मोर्चेपर गांधीजी भारतीयोंकी तकलीफें दूर करनेकी लड़ाई लड़ते रहे, वह था स्थानीय समाचारपत्रों का। इन्हें वे पत्र लिखते और मुलाकातें देते थे। जब वे सभाओंमें बोलते और विशेषतः जब इंडियन ओपिनियन मुखपत्रकी तरह उनके पास था, वे अपने देशवासियोंको अपने सुधारने-सँवारनेके लिए आत्मनिरीक्षणकी प्रेरणा देते, जिससे वे अपने प्रश्नको शक्तिशाली बनाकर न्याय पा सकें। भारत और इंग्लैंडमें मित्रों और समाचारपत्रोंको वे प्रायः दक्षिण आफ्रिकाकी परिस्थितिके उतार-चढ़ावोंपर पत्र, विवरण और वक्तव्य भेजते रहते थे। गांधीजीके सार्वजनिक कार्यका सामान्य स्वरूप ऐसा था।

जब सन् १८९७ का विक्रेता-परवाना अधिनियम पास हुआ तब १८९८ के अन्त-अन्तमें गांधीजीने उसके हानिकारक प्रभावको स्पष्ट करते हुए एक अच्छा सप्रमाण स्मरणपत्र श्री चेम्बरलेनके


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