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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

अपेक्षा मजदूरीमें अधिक कमाईका अवसर है। इसलिए, स्वभावतः ही, शिक्षक बहुत घटिया दरजेके हैं, हालाँकि प्रस्तुत परिस्थितियोंमें वे अपना पूरा प्रयत्न करते हैं। इन सब कारणोंसे, क्लार्क, दुभाषिए और दूकानदार आदि भद्र भारतीय, अपने बालकोंको इन स्कूलों में भेजना नहीं चाहते। यहाँको साधारण प्रारम्भिक लोकशालाओंमें फीस बहुत ज्यादा ली जाती है। फिर भी जो बच्चे उसे दे सकते हैं वे अबतक इन स्कूलों में पढ़ते रहे हैं -परन्तु यहाँ भरती होने में अनेक कठिनाइयाँ उठाकर। कुछ वर्ष हुए, यहाँ एक आन्दोलन शुरू किया गया था कि भारतीय बच्चोंको इन लोकशालाओं में तबतक दाखिल न किया जाये जबतक वे अपने स्कूलोंमें दाखिल होनेके सब प्रयत्न न कर चुके हों; और इस प्रकार इज्जतदार भारतीयोंपर भी, गरीबसे गरीब भारतीयोंके ऊपर बताये हुए स्कूल थोपनेका प्रयत्न किया गया था। तबसे, इज्जतदार भारतीयोंकी अपने बच्चोंको सरकारी स्कूलों में दाखिल करानेकी कठिनाइयाँ बढ़ती जा रही हैं। अब, कभी तो उनके मार्ग में कठिनाइयाँ स्कूलका मुख्याध्यापक खड़ी कर देता है, और कभी सरकार । हालमें बहुत कम भारतीय बच्चे, मुश्किलसे आधा दर्जन, इन लोकशालाओं में दाखिल हो पाये है -और वे भी भारी कठिनाइयोंका सामना करनेके बाद ।

वर्तमान सरकारने लोकप्रिय बनने के लिए अब एक बड़ा कदम उठाया है। उसने घोषणा की है कि उसका मंशा इन स्कूलोंको भारतीय बच्चोंके लिए बिलकुल बन्द कर देनेका है। जातीय भावनाका यह उभाड़ दुःखदायी तो अवश्य है, परन्तु इसका एक मनोरंजक पहलू भी है। यदि किसी भारतीय पिताके छ: बच्चे हैं और उनमें से पाँचका शिक्षण विशेष लोकशालाओंमें हो चुका है तो अब वह अपने अन्तिम बच्चेको वही शिक्षण नहीं दिला सकता। यदि कोई पिता अपनी भारतीय राष्ट्रीयताका परित्याग करनेको तैयार हो जाये तो वह अपने बच्चेको इन विशेष लोकशालाओंमें भेज सकता है। यह सरकारकी बदकिस्मती है कि इस प्रकार वह पिता, सरकारकी इस दलीलको छिन्न-भिन्न कर सकता है कि काले बच्चोंको दाखिल करनेसे कटुता और शोर-गुल उत्पन्न होता है। व्यभिचारसे उत्पन्न बच्चा दाखिल हो सकता है, यदि उसका पिता या माता यूरोपीय हो, परन्तु शुद्ध रक्तका भारतीय दाखिल नहीं हो सकता। बहिष्कारके योग्य अकेला वही ठहराया गया है। परन्तु, मालूम होता है, सरकार अपनी अन्यायपूर्ण कार्रवाईसे आप ही चौंक उठी है। उसने अपने अन्तरात्माको बहलाने और उन भारतीय अर्जदारोंमें से कुछ के दावोंको पूरा करने के लिए, जो चाहते थे कि उनके बच्चोंको इन विशेष प्राथमिक लोकशालाओंमें दाखिल किया जाये, एक स्कूल खोलकर उसका नाम 'भार- तीय बालकोंका उच्च स्कूल' रखना पसन्द किया है। माना जाता है कि यह स्कूल सब प्रकारसे उपर्युक्त स्कूलोंके बराबर है। इसमें तो सन्देह नहीं कि यह स्कूल ऊपर वर्णित टीनकी रद्दी झोंपड़ियोंसे बहुत अच्छा है और इसके शिक्षक भी यूरोपीय है, परन्तु इसे विशेष लोकशालाओंके बराबर किसी भी प्रकार नहीं माना जा सकता। इस स्कूलमें अबतक सब कक्षाओंका भी प्रबन्ध नहीं किया गया। बालिकाओंके शिक्षणकी तो इसमें बिल्कुल ही उपेक्षा कर दी गई है। इसे यदि समझौता-रूप मान लें, तो भी अनेक आवश्यकताएँ ऐसी रह जायेंगी जो इससे पूरी नहीं होतीं। इसमें भारतीयोंके लिए लिखाई-पढ़ाई और गणितसे आगे कुछ सीखनेका कोई प्रबन्ध नहीं है। अबतक उपनिवेशके हाई-स्कूलोंमें दाखिला कराने के सब प्रयत्न विफल रहे है। सरकारने इस प्रकारकी अजियोंपर विचारतक करनेसे इनकार कर दिया है।

यदि लंदन या कलकत्तेसे ही इस बीच कोई सहायता न कर दी गई तो भविष्य निश्चय ही बहुत मनहूस है। जो माता-पिता अपने बच्चोंको भली भाँति शिक्षा देनेके लिए अपना सर्वस्वतक निछावर करने को तैयार है, परन्तु जो केवल सरकारी प्रतिबन्धोंके कारण


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