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दक्षिण आफ्रिकामें भारतीय प्रश्न

वैसा नहीं कर पा रहे, उनके प्रति सहानुभूति न रखना असम्भव है। ग्रॉडफ्रे नामके एक सज्जनकी कहानी इसी प्रकारकी है। वे भारतीय मिशन स्कूल के एक सम्मानित शिक्षक है। स्वयं उन्होंने बहुत ऊँची शिक्षा नहीं पाई, परन्तु अपनी सन्तानको वे यथाशक्ति अच्छीसे अच्छी शिक्षा दिलाने के लिए बहुत ही उत्सुक है। एकके अतिरिक्त, उनके अन्य सब बच्चोंका शिक्षण सरकारी स्कूलोंमें हुआ है। उन्होंने अपने सबसे बड़े पुत्रको कलकत्ता भेजकर विश्वविद्यालयका शिक्षण दिलवाया और अब उसे डाक्टरी पढ़ने के लिए ग्लासगो भेजा है। उनका दूसरा पुत्र प्रथम भारतीय है जो इस उपनिवेशकी नागरिक सेवा (सिविल सर्विस) की प्रतियोगितामें सफल हुआ है। वे सबसे छोटी पुत्रीको सरकारी प्राइमरी स्कूलमें नहीं भेज पा रहे, और सब प्रयत्न करके भी अपने तृतीय पुत्रको डर्बन हाई स्कूलमें दाखिल नहीं करवा पाये। वह एक होनहार युवक है। यहाँ यह जिक्र भी कर देना अनुचित न होगा कि इस परिवारका रहन-सहन यूरोपीय ढंगका है। सब बालकोंको बचपनसे ही अंग्रेजी बोलने का अभ्यास करवाया गया है और, स्वभावतः ही, वे अंग्रेजी बहुत अच्छी तरह बोलते हैं। समझमें नहीं आता कि इस बच्चेके लिए ही दरवाजा क्यों बन्द कर दिया गया, जब कि उनके अन्य सब बच्चोंको सरकारी स्कूलमें दाखिल कर लिया गया था। इस उदाहरणसे, अन्य किसी भी बातकी अपेक्षा, यह अधिक अच्छी तरह समझमें आ सकता है कि श्री गॉडफ्रेसे नीचे दरजेके भारतीयोंकी स्थिति कितनी कठिन होगी।

आजकल नेटाल-संसदकी, जिसे श्री रोड्स'ने दक्षिण आफ्रिकाकी " स्थानीय सभा" बतलाया है, बैठक हो रही है; और अटर्नी-जनरल, जो शिक्षा-मन्त्री भी हैं, बार-बार प्रश्न करनेवाले सदस्योंको बतला रहे है कि हमारी सरकार पहली सरकार है जिसने कि सरकारी स्कूलोंके दरवाजे भारतीय बच्चोंके लिए बन्द कर दिये हैं। और ये सज्जन अपने अन्तरात्माकी पुकार पर चलनेवाले माने जाते हैं, अन्यथा आदरणीय तो हैं ही। परन्तु यदि हम इनसे यह साधारण-सी भी अपील करते है कि कमसे कम न्यायकी इतनी बात तो कीजिए कि जिन माता-पिताओंको अबतक अपने बच्चों को सरकारी स्कूलोंमें पढ़ाने दिया जाता रहा है उनके लिए तो उनके दरवाजे खुले रहने दीजिए, तो उसका उनपर कोई असर नहीं होता। और यह सब है केवल थोड़े-से तुच्छ - क्योंकि भारतीयोंके विरुद्ध इस तमाम अन्यायपूर्ण और अनुचित कार्रवाईकी जड़ यही है। मन्त्री लोग न्यायके मार्गपर नहीं चल रहे, चलनेकी हिम्मत ही नहीं कर सकते, क्योंकि उन्हें डर है कि अगर वैसा करें तो अगले चुनावोंमें कहीं उनकी अपनी स्थिति संकटापन्न न हो जाये। जब नेटालको उत्तरदायित्वपूर्ण शासन दिया गया था तब उसके लिए शोर मचानेवालोंने बड़े जोरसे दावा किया था कि जिन लोगोंको मताधिकार प्राप्त नहीं है उनके साथ पूरा न्याय किया जायेगा। परन्तु जब यह उपनिवेश स्वशासित उपनिवेश बन गया तब इसकी नवीन सरकारके प्रथम प्रधानमन्त्री सर जॉन रॉबिन्सनने भारतीयोंको मताधिकारसे वंचित करनेका विधेयक पेश करते हुए कहा था कि उपनिवेशके लोग --उनकी दृष्टिमें केवल' यूरोपीय लोग भली भाँति जानते हैं कि अब वे पहलेसे अधिक जिस स्वतन्त्रताका उपभोग कर रहे हैं, उसके साथ स्वभावतः अधिक जिम्मेवारी भी उनके सिर आ गयी है, और भारतीयोंको प्राप्त मताधिकारसे वंचित करनेके कारण उनकी जिम्मेवारी और भी अधिक बढ़ गई है। तब अभागे भारतीयोंने मानो यह भविष्यवाणी-सी ही कर दी थी कि इस प्रकारको बातें केवल ब्रिटिश सरकारको सुनाने के लिए कही गई हैं, और नेटालमें उनसे कोई भ्रममें नहीं पड़ेगा। उन्होंने कहा था कि यह मताधिकारका अपहरण तो अंगुली पकड़कर पहुँचा पकड़नेके प्रयत्न जैसा है, और यदि ब्रिटिश सरकार नेटाल-सरकारके दबावमें आ गई तो यहाँके

१. यह उल्लेख सेसिल रोड्सका है, जो दो बार केप उपनिवेशके प्रधानमन्त्री रहे थे।


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