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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

भारतीयोंका सर्वनाश होकर रहेगा। अब यह सब बिलकुल सच निकल चुका है। जबसे उत्तरदायित्वपूर्ण शासन दिया गया है तबसे बेचारे भारतीयोंको चैन नहीं मिल रहा। उनके ब्रिटिश नागरिकताके प्राथमिक अधिकार एक-एक करके उनसे छीन लिये गये हैं, और यदि श्री चेम्बरलेन और लॉर्ड कर्जन बहुत ही सजग न रहे तो शीघ्र ही एक दिन ऐसा आ जायेगा जब कि नेटालके ब्रिटिश भारतीय देखेंगे कि उन्हें सम्राज्ञीकी प्रजाकी हैसियतसे, जो अधिकार अपने समझनेका अभ्यास करवाया गया है, वे सब उनसे छिन चुके हैं।

ईसाई बने हुए भारतीयोंमें, जिनकी संख्या बहुत बड़ी है, नेटाल-सरकारकी शिक्षा-सम्बन्धी नयी कार्रवाईसे उत्पन्न हुआ असन्तोष बहुत तीव्र है। और सबकी अपेक्षा वे पश्चिमी सभ्यताके लाभोंको अधिक समझते हैं। उन्हें वैसा करना सिखाया भी गया है। उन्होंने अपने धार्मिक गुरुओंसे सबकी समानताका सिद्धान्त भी सीखा है। प्रति रविवारको उन्हें बतलाया जाता है कि उनका प्रभु ईसा यहूदियों और गैरयहूदियों, यूरोपीयों और एशियाइयोंमें कोई भेद नहीं करता था। इसलिए शिक्षाके क्षेत्रमें उनपर जो निर्योग्यताएँ लादी जा रही हैं उन्हें वे इतना अधिक महसूस करें तो क्या आश्चर्य है! यह बतलाना कठिन है कि इस भारतीय-विरोधी आन्दोलनका अन्त कहाँ जाकर होगा। नीचे नेटालकी संसदके कुछ प्रसिद्ध सदस्योंके भाषणोंमें से जो वाक्य उद्धृत किये जा रहे हैं उनसे शायद गैर-उपनिवेशवासियोंकी इच्छाओंका प्रकाशन भली भांति हो जाता है :

श्री पामरने भारतीयोंकी शिक्षाके लिए स्वीकृत की गई धन-राशिमें इतनी अधिक वृद्धि करनेको अवांछनीय बतलाया और कहा कि, इस तरह तो उन्हें गोरे उपनिवेशवासियोंके बच्चोंकी जगहें हड़पनेके लिए तैयार किया जा रहा है।

श्री पेनने प्रस्ताव किया कि इस राशिको बजटमें से निकाल दिया जाये। उन्होंने कहा कि जो भारतीय यहाँ आ गये हैं उन्हें उपनिवेशसे चले जानेका अधिकार है।

नेटालमें एक गोरेके पीछे तेरह काले (?) हैं, और फिर भी संसद कालोंको शिक्षित करनेके लिए धन-राशि स्वीकृत कर रही है, जिससे कि काले लोग यूरोपीयोंको यहाँसे निकाल सकें। कुछ लोग तो इससे भी बुरा कर रहे हैं वे कालोंके हाथ जमीन बेच रहे हैं, जो भविष्यमें यहाँ कालोंके बलको नींवका काम देगी। नेटाल मयुरी, ८ जून, १८९९।

न्याय जिस पक्षमें है, यह समझने के लिए बहुत समयकी जरूरत नहीं है। सर हैरी एच० जान्स्टनका नाम तो आपके पाठक जानते ही हैं। उन्होंने अपनी हालकी पुस्तक कालोनाइजेशन ऑफ आमिका ('आफ्रिकामें उपनिवेशोंकी स्थापना') में लिखा है :

इसके विपरीत, साम्राज्यको दृष्टिसे -जिसे मैं काले, गोरे और पीलेको नीति कहता हूँ, उससे -यह अन्यायपूर्ण लगता है कि सम्राज्ञीके भारतीय प्रजाजनोंको उतनी ही स्वतन्त्रतासे घूमने-फिरने न दिया जाये जितनीसे यूरोपीयोंकी सन्तान होने का दावा करने- वाले उसके पिठुओंको घूमने-फिरने दिया जाता है।

और अन्ततोगत्वा, क्या विचार करने योग्य एकमात्र साम्राज्यका दृष्टिकोण ही नहीं है, और क्या इसके सामने अन्य सब विचारोंको दबना नहीं पड़ेगा? आशा है कि भारतकी जनता ? इस प्रश्नके महत्त्वको भली भाँति समझेगी और इसपर ध्यान देगी, क्योंकि व्यापक दृष्टि से देखा जाये तो इसका प्रभाव केवल नेटालके ५०,००० भारतीयोंपर ही नहीं, ३० करोड़ भार-


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