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प्रार्थनापत्र : नेटालके गवर्नरको

मुझे मालूम हुआ है कि वेरुलममें वो अर्जदारोंके पास पिछले साल तो परवाने थे, परन्तु इस साल उन्हें वे देनेसे इनकार कर दिया गया। फल यह हुआ कि वे दोनों और उनके नौकर, सबके सब, अपेक्षाकृत कंगाल हो गये हैं।

लेडीस्मिथमें एम० सी० आमला नामके एक व्यक्ति कई वर्षोंसे व्यापार कर रहे थे। इस वर्ष उनका परवाना यह कहकर रद कर दिया गया कि जिस जगह वे दूकान करते हैं वह नगरको मुख्य गलीमें होनेके कारण केवल किसी यूरोपीय सौदागरके लायक है। उन्होंने एक और ऐसी इमारतमें दूकान खोलनेके परवानेको अर्जी दी, जो एक भारतीय दूकानके साथ लगी हुई थी और जिसका मालिक भी दूकानका मालिक ही था। परन्तु यह प्रार्थना भी वही कारण बताकर अस्वीकृत कर दी गई। यहाँ इतना बता देनेकी मुझे इजाजत दी जाये कि इसी गलीमें और भी कई भारतीय दूकानें हैं।

पोर्ट शेप्स्टोनमें दो बड़े भारतीय व्यापारियोंने हाल ही में अपना कारोबार दो अन्य भारतीयोंके हाथ बेचा था। उन दोनोंने परवानेकी अर्जी दी, परन्तु परवाना-अधिकारीने उसे अस्वीकृत कर दिया। परवाना-निकायमें अपील करनेका भी कुछ बेहतर नतीजा नहीं निकला। अब वे सोच रहे हैं कि करें तो क्या करें।

यहाँ नम्र निवेदन है कि यह बात बड़ी गम्भीर है कि एक व्यक्ति तो केवल भारतीय होनेके कारण अपना कारोबार बेच नहीं सकता और दूसरा, भारतीय होनेके कारण ही, उसे खरीद नहीं सकता। क्योंकि, इस प्रकारके मामलोंमें परवाना न देनेका अर्थ यह हो जाता है कि बेचना खरीदना भी बन्द हो जाये; और वह हो भी तो लुक-छिपकर हो।

एक अन्य भारतीय अपनी दूकान डंडी कोल कम्पनीको बेचकर और वहाँ अपना सारा कारोबार समेटकर डर्बनमें आ गया, और यहाँ उसने अमगेनी रोडपर पहलेसे परवाना-प्राप्त एक दूकान खरीदकर उसमें स्वयं व्यापार करनेके लिए परवानेको अर्जी दी। उसे परवाना-अधिकारीने परवाना दिया तो सही, परन्तु कई बार अजियाँ देने और भारी खर्च करके डर्बनका एक बड़ा वकील करनेके पश्चात् और वह भी केवल थोड़े-से समयके लिए, जिससे कि प्रार्थीने परवाना मिल जानेको आशामें जो माल खरीद लिया था उसे वह बेच सके।

कुछ मामले तो ऐसे हैं जिनमें कि जमे-जमाये कारोबारवालोंपर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। परन्तु ऐसे उदाहरण अनगिनत हैं जिनमें कि बिलकुल भले और पूंजीवाले व्यक्तियोंको केवल भारतीय होनेके कारण परवाना देनेसे इनकार कर दिया गया; यह भी कहा गया कि उनके पास पिछले साल भी परवाना नहीं था।

भारतीयोंको यह देखकर संतोष हुआ है और वे इसके लिए कृतज्ञ भी हैं कि, सरकार स्वयं चाहती है कि जिन भारतीयोंका कारोबार जम चुका है उनको कोई हानि न पहुंचे। और उसने शायद इसीलिए कई नगर-परिषदों और नगर-निकायोंको इस आशयके पत्र भी लिखे हैं कि, यदि उन्होंने जमे-जमाये कारोबारवालोंको न छेड़नेका ध्यान न रखा तो शायद भारतीयोंको सर्वोच्च न्यायालयमें अपील करनेका अधिकार देनेके लिए कानून बनाना पड़ जाये। परन्तु मैं बताना चाहता हूँ कि निकायोंके नाम इस प्रकारकी अपीलका कुछ असर हुआ भी तो वह शायद स्थायी नहीं होगा और


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