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प्रार्थनापत्र : नेटाल्के गवर्नरको

इस विषयपर टाइम्स ऑफ़ इंडियामें निम्नलिखित अग्रलेख प्रकाशित हुए हैं। हम आपका ध्यान उनकी ओर दिलानेका साहस करते हैं :

हम ब्रिटिश आफ्रिकावासी भारतीयोंके अधिकारोंके प्रश्नको चर्चा इतनी बार कर चुके हैं कि हमने बार-बार जो तर्क पेश किये हैं उन्हें इस अवसरपर फिर दोहराना अनावश्यक है।... उपनिवेशियोंने उनकी सेवाओंका लाभ लकड़हारों और पनिहारोंके रूपमें तो प्रसन्नतासे उठा लिया, परन्तु वे उन्हें व्यापारमें स्वतन्त्र प्रतिस्पर्धा करनेके अधि- कारसे वंचित रखनेका प्रयत्न निरन्तर करते चले आ रहे हैं। ब्रिटिश प्रजा होनेकी हैसियतसे उनका यह अधिकार ऐसा होना चाहिए, जो छीना न जा सके। वे स्वयं तो खुले बाजारमें भारतीय व्यापारियोंके मुकाबलेमें व्यापार करनेसे इनकार करते हैं, परन्तु उन्हें परेशान करनेवाली नाना प्रकारको पावन्दियोंमें जकड़कर घृणितसे घृणित रूपमें संरक्षण प्राप्त करनेका प्रयत्न करते हैं। ब्रिटिश परम्परा सब जातियों और सब धोके साथ निष्पक्षताका व्यवहार करनेको रही है। परन्तु दक्षिण आफ्रिकामें उन्होंने उसके इतना विपरीत आचरण किया है कि कहाँ तो ब्रिटिश प्रजाजन ब्रिटिश छत्रछायामें उनके साथ रहकर समान अधिकारोंका उपभोग करनेकी आशा कर रहे थे और कहां उनके ही क्रूर अत्याचारोंसे बचनेके लिए उन्हें पुर्तगाली राज्यमें जाकर शरण लेनी पड़ रही है! यह सब देखकर हमें घोर तिरस्कार और अपमानका अनुभव होता है। जबतक स्वयं ब्रिटिश सरकार भारतीय व्यापारियोंकी रक्षा करनेका निश्चय नहीं करेगी तबतक दक्षिण आफ्रिकामें उन्हें जो अन्याय सहना पड़ रहा है उसका अन्त नहीं हो सकेगा। उन्हें उससे ऐसी आशा रखनेका अधिकार भी है। (अप्रैल १५, १८९९, साप्ताहिक संस्करण)

भारतमें रहनवाले अंग्रेजोंके मनमें यह देखकर खीझ और कोषके भाव उत्पन्न हो जाते हैं कि भारतीय व्यापारियोंको ब्रिटिश झंडे-तलेके ही एक प्रदेशमें जाने और बसनेसे रोका जा रहा है। उसके कारण उनके साथी प्रजाजनोंको असन्दिग्ध रूपसे यह पूछनेका अवसर मिल जाता है कि हमें ब्रिटिश साम्राज्यका नागरिक होनेसे क्या लाभ? यह देखकर Cam भारतीयोंको ऐसा सोचनेका प्रलोभन होता है कि ब्रिटिश झंडा निरा निरर्थक चिह्न है, क्योंकि उसके नीचे एक ब्रिटिश प्रजाजन दूसरेको दुःखी और बाध्य कर सकता है। और दुःखी व्यक्ति उसके प्रतिकारका कोई उपाय नहीं कर सकता। यदि ब्रिटेनका लोकमत दक्षिण आफ्रिकाके भारतीयोंकी इस शिकायतके विषयमें जाग्रत किया जा सके तो यह हमारा, जो भारतमें अंग्रेजोंको हिमायत करते हैं, एक भारी योगदान होगा। इस मामलेमें न्यायका पक्ष इतना स्पष्ट है कि डर्बनमें भी उसपर कोई किसी प्रकारका विवाद नहीं कर सकता। परन्तु, इस प्रश्नका एक राजनीतिक और भावुक पहलू भी है। यदि एक बार इंग्लण्डके लोगोंका ध्यान इस ओर खींच दिया गया कि महारानीके हजारों ईमानदार और भले आचरणवाले प्रजाजनोंको साम्राज्यके एक भागसे हटकर दूसरेमें जानेपर नागरिकताके साधारणतम अधिकार देनेसे भी इनकार किया जा रहा है तो वहाँकी जन-भावना एकदम प्रभावित और जाग्रत हो जायेगी। ... ब्रिटेनकी लोक-सभामें क्या एक भी सदस्य ऐसा नहीं है, जो लज्जा और अन्यायको यह कहानी सुनाकर पीड़ितोंके साथ हुए अन्यायका प्रतिकार करवानेकी कुछ आशा रखता हो? (अप्रैल २२, १८९९ साप्ताहिक संस्करण)


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