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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इसी महीने हमारा परिचय ब्रिटिश संसदके एक अनुदार दलीय सदस्य श्री अर्नेस्ट हैचसे हुआ। वे दक्षिण आफ्रिकाका भ्रमण कर रहे थे। जोहानिसबर्गके कुछ लोगोंने उन्हें भारतीय बस्तियों में ले जाकर वहाँका सबसे गन्दा मुहल्ला दिखाया। इसपर अखबारोंने लिखा कि श्री हैचने जो कुछ देखा उससे उन्हें बहुत घृणा हुई और वे भारतीयोंके प्रश्नका अध्ययन करने- वाले हैं। जोहानिसबर्गसे वे डर्बन आये। कांग्रेसके कुछ सदस्योंने यह वाजिब समझा कि उनसे मिलकर इस प्रश्नपर भारतीयोंका दृष्टिकोण उनके सामने रखा जाये। करीब ५० भारतीय प्रतिनिधियोंका एक शिष्टमण्डल उनसे मिला। जो-कुछ उनसे कहा गया उसका उन्होंने अत्यन्त सहानुभूतिपूर्ण उत्तर दिया और वादा किया कि इंग्लैण्डमें उनसे जो-कुछ हो सकेगा, वे करेंगे। उनकी रायमें हम नरमीके साथ अपना कार्य कर रहे थे, इसलिए उन्होंने उसका अनुमोदन किया। श्री हैचको कुछ अनोखी भारतीय वस्तुएँ भेंट की गई।

मताधिकारका प्रश्न अभी हल हुआ ही नहीं था, और १८९५के उत्तर भागमें अखबारोंने इसपर खूब चर्चा की। उस समय मालूम पड़ता था, हर व्यक्ति समझता है कि भारतीय किसी ऐसे नये विशेषाधिकारका दावा करनेकी कोशिश कर रहे हैं, जिससे अबतक उन्हें वंचित रखा गया था; कि, वे चाहते हैं, प्रत्येक भारतीयको मत देने का अधिकार मिले, जबकि भारतमें उन्हें वैसा करनेका कभी भी कोई अधिकार नहीं मिला; कि यदि दक्षिण आफ्रिकाके वतनियोंको यह अधिकार नहीं मिल सकता तो किसी भारतीयको कैसे मिल सकता है ? इन सब गलत- बयानियोंका जवाब देना और गलतफहमियोंको दूर करना बिलकुल जरूरी हो गया है। भारतीयोंका मताधिकार : दक्षिण आफ्रिकाके प्रत्येक अंग्रेजके नाम अपील के नामसे एक पुस्तिका तैयार की गई । उसकी सात हजार प्रतियां छापी गईं। उनमें से एक हजार प्रतियोंकी कीमत श्री अब्दुल करीम हाजीने दी और उन्हें दूर-दूरतक वितरित किया गया। कुछ इंग्लैंडमें भी बाँटी गईं। बहुत-से दक्षिण आफ्रिकी अखबारोंने इस पुस्तिका पर लिखा, जिससे उनमें कुछ तो सहानुभूतिपूर्ण, कुछ कटुतापूर्ण तथा कुछ अत्यन्त उपेक्षापूर्ण पत्र प्रकाशित हुए। लंदन टाइम्सने इसपर एक विशेष लेख प्रकाशित किया और उसमें लेखकने पुस्तिकाके सभी सुझाव स्वीकार कर लिए। यह दिसम्बर १८९५ की बात है।

१८९६ के आरम्भमें कांग्रेसने जो प्रश्न उपनिवेश-मन्त्रीके सामने रखे थे उनमें से ज्यादा- तर अबतक अनिर्णीत ही थे, इसलिए यह आवश्यक समझा गया कि सारी स्थितिका एक सिंहा- वलोकन अपने भारत तथा लंदनके मित्रोंके सामने पेश किया जाये। एक सामान्य पत्र तैयार किया गया और नेटालके प्रतिनिधि भारतीयोंके हस्ताक्षरोंसे उसे उनके पास भेज दिया गया। लगभग उसी समय जूलूलैंडमें बसाये गये नये नगर नोंदवेनी-सम्बन्धी विनियम प्रकाशित हुए थे। उनमें व्यवस्था की गई थी कि उस नगरमें भारतीय मकानके लिए जमीन न तो खरीद सकते हैं और न रख सकते हैं। जैसे ही वे विनियम सरकारी गजटमें प्रकाशित हुए इस भेदभावके खिलाफ विरोध प्रकट करते हुए एक प्रार्थनापत्र तैयार करके परमश्रेष्ठ गवर्नरको भेजा गया। नेटाल मर्युरीने हमारे दावेको न्यायानुकूल माना। फिर भी परमश्रेष्ठ इस पाबन्दीको नहीं हटा सके।

१.देखिए खण्ड १, पृष्ठ २६० ।

२. यह उपलब्ध नहीं है।

३. देखिए खण्ड १, पृष्ठ २९९ ।

४. देखिए खण्ड १, पृष्ठ २९९-३०१ ।

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