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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

किये। राजा सर रामस्वामी मुदलियार सर्वप्रथम हस्ताक्षर करनेवाले थे। माननीय श्री आनन्दा- चारलुने सभाकी अध्यक्षता की। सभाभवन खचाखच भरा हुआ था। भाषणके पढ़े जानेके बाद सर्वसम्मतिसे वैसे ही प्रस्ताव पास किये गये जैसे कि बम्बईमें पास हुए थे। एक विशेष प्रस्ताव भी मंजूर किया गया, जिसमें सुझाव था कि गिरमिटिया मजदूरोंको नेटाल भेजना बन्द कर दिया जाये। श्री ऐडम्स, श्री परमेश्वरम् पिल्ले तथा श्री पार्थसारथी नायडूने प्रस्तावपर भाषण दिये। सभी प्रमुख दैनिक पत्रोंने पूरी कार्यवाही प्रकाशित की। सभा समाप्त होनेपर उक्त पुस्तिकाके लिए ऐसी छीना-झपटी हुई कि सभी उपलब्ध प्रतियाँ समाप्त हो गई और जनताकी मांग पूरी करनेके लिए मद्रासमें २००० प्रतियाँ और छपाई गई। लंदन टाइन्सके शिमला-संवाददाताका तार उस पत्रमें प्रकाशित होनेके बाद नेटालके एजेंट-जनरल, सर (उस समय श्री) वाल्टर पीससे भेंट की गई और उन्होंने जवाबमें बताया कि शिकायत कोई है ही नहीं, और उन्होंने बहुत-सी अन्य बातें भी कहीं। मद्रासमें दिये गये भाषणकी विशेषता यह थी कि उसमें सर वाल्टर पीसको विस्तारके साथ उत्तर दिया गया था। पुस्तिकाके दूसरे संस्करणमें यह उत्तर परिशिष्टके रूपमें छापा गया था।

पखवारे भर मद्रासमें ठहरनेके बाद अवैतनिक मन्त्री कलकत्ता चले गये। वहाँ उन्होंने लोकमतके नेताओंसे भेंट की। इंग्लिशमैन, इंडियन मिरर, स्टेट्समैन तथा अन्य अंग्रेजी तथा भारतीय भाषाओंके पत्रोंने सहानुभूतिपूर्ण टीका-टिप्पणियाँ लिखीं। ब्रिटिश भारत संघ (ब्रिटिश इंडिया असोसिएशन) की समितिने अवैतनिक मन्त्रीका भाषण सुनने के लिए एक बैठक की और निर्णय किया कि भारतमन्त्रीको भेजनेके लिए एक स्मरणपत्र मंजूर किया जाये । सार्वजनिक सभा करनेकी तैयारी हो ही रही थी कि नेटालसे एक तार प्राप्त हुआ, जिसमें अवैतनिक मन्त्रीको तुरन्त वापस बुलाया गया था। इसलिए सभाका विचार छोड़ देना पड़ा और वे कलकत्तेसे बम्बईको रवाना हो गये। तथापि, पूनामें वहाँकी सार्वजनिक सभाके तत्त्वावधानमें एक सभा की गई। प्रोफेसर भाण्डारकर उसके अध्यक्ष थे। सभाने वैसे ही प्रस्ताव पास किये जैसे कि मद्रासमें हुए थे। उनपर प्रो० गोखले, माननीय श्री तिलक तथा . . ने भाषण किये।

अवैतनिक मन्त्री २७ नवम्बर, १८९६ को कूरलैंड जहाज द्वारा भारतसे रवाना हुए। टाइम्सके शिमला संवाददाताके उपर्युक्त तारका सारांश रायटरने दक्षिण आफ्रिकी पत्रोंको भेज दिया था। इस सारांशने भारतमें प्रचारित पुस्तिकाके बारेमें ऐसी भावना पैदा की, जिसका समर्थन पुस्तिकाके पढ़नेसे नहीं हो सकता। फिर भी उसने यूरोपीय उपनिवेशियोंको नाराज कर दिया। समाचारपत्रोंने उग्र लेख प्रकाशित किये। इससे संगठित रूपमें एशियाई-विरोधी आन्दो- लनका जन्म हुआ और देशभक्त उपनिवेशी संघ (कलोनियल पैट्रिआटिक यूनियन) की स्थापना हुई। ऐसा मालूम पड़ता है कि लेखोंके प्रकाशित होते ही उक्त पुस्तिकाकी प्रतियाँ, जो यहाँ भेज दी गई थीं, पत्रोंको दी गई। तब उन्होंने स्थितिको यथार्थ दृष्टिसे देखा और स्वीकार किया कि पुस्तिकाके विरुद्ध जिस उन भाषाका उपयोग किया गया उसे उचित सिद्ध करनेके लिए उसमें कुछ भी नहीं था। फिर भी आन्दोलन जारी रहा । संघने बढ़ा-चढ़ाकर ऐसे वक्तव्य दिये जो जनताके दिमागको भड़का सकते थे। इसी बीच' कूरलैंड वहाँ पहुँचा। उससे कुछ घण्टे पहले नादरी वहाँ पहुँच चुका था। वह भी भारतीय' मुसाफिरोंको लेकर आया था। २३ दिनका लम्बा सूतक (क्वारंटीन), प्रदर्शन-समितिका संगठन, भारतीयोंको उतरनेसे रोकनेके लिए समितिके लोगोंका जुलूस बनाकर जहाजघाट तक जाना, मुसाफिरोंका तटपर उतरना, अवैतनिक

१. दूसरे वक्ता प्रोफेसर ए० एस० साठे थे।

२. जहाज बम्बईसे नवम्बर ३० को छूटा था; देखिए. खण्ड २, पृष्ठ २०६ ।

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