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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

यह नहीं जानते कि भारतीयोंके खिलाफ आन्दोलन उतना ही पुराना है जितना कि उनका इस उपनिवेश में आना। यदि हम इस आन्दोलनको रोकनेकी कोशिश न करते तो क्या होता? इसका उत्तर सीधा है। ऑरेंज फ्री स्टेटमें भारतीयोंका क्या हुआ? यूरोपीयोंने भारतीयोंके खिलाफ आन्दोलन चलाया और भारतीय चुपचाप बैठे रहे। वे तब होश में आये जब काफी देर हो चुकी थी। अब उस राज्यमें हमारे पैर जरा भी जमे हुए नहीं रहे। ट्रान्सवालमें हम तब होश में आये जब कि हमारी आधी जमीन खो चुकी थी। चूंकि हमने वहाँ यूरोपीयोंके विरोधके खिलाफ आवाज उठाई इसलिए आशा है कि भले ही हम खोई बाजी फिरसे जीत न सकें, जो कुछ हमारे पास बचा है कमसे-कम बचा तो सकेंगे। इसी प्रकार नेटालमें भी हमें तब होश आया जब कि एशियाई-विरोधी भावनाओंको कानूनके रूपमें उतारा जा रहा था। इसलिए हमारी स्थिति वहाँ अब वैसी नहीं है जैसी कि और तरहसे होती। यदि उक्त भावनाओंको उतना न बढ़ने दिया जाता जितना कि वे १८९४ में बढ़ीं तो हम दक्षिण आफ्रिकाके अन्य राज्योंके घटनाचक्रको देखकर भली भाँति अनुमान लगा सकते हैं कि, हमारी स्थिति आजकी अपेक्षा कहीं अच्छी होती। इस जाँच-पड़तालको आगे बढ़ानेपर दावा किया जा सकता है कि जूलूलैंडमें नोंदवेनी बस्तीके भारतीय-विरोधी विनियमोंका रद किया जाना, विशेष रूपसे भारतीयोंपर लागू होनेवाले पहले मताधिकार अधिनियमका रद किया जाना, ट्रान्सवालकी अनिवार्य सैनिक-भरती सन्धिमें एशियाई-विरोधी उपधाराका स्वीकार न किया जाना, ट्रान्सवाल-प्रार्थनापत्रके उत्तरमें भेजे गये प्रसिद्ध खरीतेमें श्री चेम्बरलेनका हमारे साथ पूरी तरह सहानुभूति प्रकट करना, नेटालके अखबारोंकी ध्वनिमें स्पष्ट सुधार होना तथा दूसरी बातें, जो ऐसे लोगोंकी समझ में आसानीसे आ जायेंगी, जिन्होंने हमारे कार्योंको समझनेकी परवाह रखी है- -सभी हमारे ही आन्दोलनका सीधा और प्रत्यक्ष परिणाम हैं।

१८९७ के प्रारम्भमें बंगालके मुख्य न्यायाधीशका एक तार अखबारोंमें प्रकाशित हुआ। उसमें उन्होंने भारतीय अकाल-पीड़ित धर्मार्थ सहायता समितिके अध्यक्षकी हैसियतसे समितिके कोशमें दान देने की अपील की थी। जैसे ही तार प्रसिद्ध हुआ, यह महसूस किया गया कि नेटालके भारतीयोंके लिए आवश्यक है कि वे इस दिशामें विशेष प्रयत्न करें। उपनिवेशमें पैदा हुए भारतीयोंकी एक बैठक एस० आइदान स्कूल के कमरेमें की गई। वहाँ उपस्थित सभी लोगोंने वादा किया कि वे न केवल स्वयं यथाशक्ति दान देंगे, बल्कि अन्य लोगोंसे भी दान एकत्र करनेकी कोशिश करेंगे। बादमें श्री पीरनकी दूकानमें व्यापारियोंकी एक बैठक हुई और एक कोश चालू कर दिया गया। किन्तु इतनेसे वहाँ उपस्थित लोग सन्तुष्ट नहीं हुए। इसलिए उन्होंने सोचा कि इसके अतिरिक्त कुछ और करना आवश्यक है। इसलिए दादा अब्दुल्ला ऐंड कम्पनीकी दूकानमें एक और बैठक हुई जिसमें लगभग उन सभी लोगोंने, जिन्होंने कि पीरनकी दूकानमें चन्दा दिया था, अपने पहले चन्देकी रकमको दुगना या तिगुना कर दिया। श्री अब्दुल करीमने अपना चन्दा ३५ पौंडसे १०१ पौंड, श्री अब्दुल कादिरने ३६ पौंडसे १०२ पौंड तथा श्री दाऊद मुहम्मदने ७५ पौंड कर दिया। भारतीय समाजके सब धर्मों तथा वर्गोका प्रतिनिधित्व करनेवाली एक जोरदार समिति बना दी गई। अंग्रेजी, गुजराती, तमिल, उर्दू तथा हिन्दी में परिपत्र छपवाकर विस्तृत रूपसे बाँटे गये । कार्यकर्ताओंने उपनिवेश-भरमें जाकर गरीब- अमीर सबसे चन्दा इकट्ठा किया और एक पखवारेके अन्दर १,१५० पौंडकी रकम एकत्र कर ली। चन्दा एकत्र करनेका खर्च २० पौंडसे भी कम आया।

१.देखिए खण्ड २, पृष्ठ १८९ ।


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