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५६. दक्षिण आफ्रिकाके भारतीय'
डर्बन
 
अक्टूबर २७, [१८९९]
 

मैंने देखा कि नेटालके भारतीयोंकी शिक्षा के सम्बन्धमें मेरे पिछले लेखने भारत तथा इंग्लैंडमें कुछ ध्यान आकर्षित किया है। उसमें मैंने कहा था कि यदि दक्षिण आफ्रिकाके भारतीय प्रश्नकी ओर भारत तथा ब्रिटेनकी सरकारोंने जितना ध्यान अबतक दिया है उससे ज्यादा न दिया तो इस देशसे भारतीय समाजके मिट जानेमें सिर्फ समयको कसर है। मैं जितना ही देखता हूँ उतना ही मेरा यह विश्वास दृढ़ होता जाता है। आज जब कि ब्रिटिश सेना और बोअरोंके बीच घोर युद्ध छिड़ा हुआ है, ट्रान्सवालके भारतीयोंकी उस स्थितिपर मैं तो कहना चाहता था, नितान्त दयनीय स्थितिपर-जिसमें, कुछ समय पहले वहाँ भगदड़ मचनेपर, वे पड़ गये थे, संक्षेपमें विचार कर लेना अप्रासंगिक न होगा। आतंककी पहली अवस्थामें डचेतर यूरोपीय हजारोंकी संख्यामें रोजाना जोहानिसबर्गसे भागते रहे । तथापि, भारतीय स्थिर रहे। बादमें डचेतर यूरोपीयोंकी परिषदके प्रमुख सदस्य चले गये। स्टारके सम्पादक तथा टाइसके संवाददाता श्री मनीपेनी और एक सुप्रसिद्ध सॉलिसिटर तथा परिषदके प्रमुख सदस्य श्री हलको वेश बदलकर भागना पड़ा था। लीडरके श्री पेकमनको राजद्रोहके आरोपमें गिरफ्तार कर लिया गया था और ह्वामें यह अफवाह व्याप्त थी कि नेटाल-सरकार आन्दोलनके नेताओंको बन्धकके रूपमें गिरफ्तार कर रखेगी। स्वभावतः ही यूरोपीयोंके साथ बेचारे भारतीय भी डर गये और वे भी ट्रान्सवाल छोड़कर किसी सुरक्षित स्थानमें जाने के लिए आतुर हो उठे। वे कहाँ जा सकते थे? केप कालोनीमें तो नहीं, क्योंकि वह दूर है और वहाँ भारतीयोंकी आबादी बहुत ही विरल है; डेलागोआ-बे में भी नहीं, क्योंकि वह मलेरियाफा अड्डा है, स्वच्छतासे रहित है और हदसे ज्यादा आबाद है। फिर नेटाल ही एक स्थान था जहाँ वे जा सकते थे। सो वहाँ, प्रवासी-प्रतिबन्धक अधिनियम, जो पागलों, अपराधियों, वेश्याओं, कंगालों और यूरोपीय भाषा- ओंमें से किसी एकका भी ज्ञान न रखनेवालोंका आगमन निषिद्ध करता है, आड़े खड़ा था। अलबत्ता, अगर उक्त आखिरी वर्गके लोग नेटालके पूर्व-निवासी हों. इन शब्दोंका अर्थ कुछ भी निकले तो बात दूसरी है। श्री चेम्बरलेनने कहा है कि वह अधिनियम रंग या प्रजातिके भेदभावके बिना सबपर लागू होता है और, इसलिए, वह कोई ऐसी चीज़ नहीं है, जिसपर आपत्ति की जा सके। परन्तु इसका यह निष्कर्ष बिलकुल नहीं निकलता कि यूरोपीय अपराधी, गुंडे या वेश्याएँ, जिनकी संख्या जोहानिसबर्ग में अच्छी-खासी मानी जा सकती है, नेटाल नहीं जा सकते थे। उनके लिए न केवल उपनिवेशके दरवाजे खुले हुए थे, बल्कि उनके स्वागतके लिए विशेष प्रबन्ध किया गया था. सहायता-समितियोंका संगठन किया गया था, और उनके संकटके समय उनको राहत पहुँचाने के लिए जो-कुछ भी किया जा सकता था वह सब इस उपनिवेशके लोगोंने किया था। यह स्वाभाविक और न्यायपूर्ण ही था।

१. देखिए पादटिप्पणी, पृष्ठ ६३ ।

२. देखिए " दक्षिण आफ्रिकामें भारतीय प्रश्न," जुलाई १२, १८९९ ।

३. गोरे विदेशी, आम तौरपर ब्रिटिश प्रजाजन, जो ट्रान्सवाल आकर बस गये थे ।

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