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नेटालके भारतीय व्यापारी

जाता है कि वह थोक या फुटकर व्यापारका परवाना स्वेच्छानुसार दे या देनेसे इनकार कर दे - चाहे परवाना दूकानदारकी हैसियतसे व्यापार करने के लिए हो या फेरीवालेकी हैसियतसे। उसके निर्णयपर वही नगर-परिषद या नगर-निकाय पुनर्विचार कर सकता है, जिसे उसकी नियुक्ति करनेका अधिकार है। परवानोंके ऐसे मामलोंमें अपील-अदालतके तौरपर विचार करने- वाली इन संस्थाओंके निर्णयके खिलाफ अपील करनेका कोई अधिकार नहीं रखा गया है। परवानेके बिना व्यापार करनेका दण्ड २० पौंड है। दण्ड न देनेपर मजिस्ट्रेटको अधिकार है कि वह अपराधीको जेल भेज दे। यह अधिकार इसी अधिनियमके अन्तर्गत नहीं, बल्कि एक दूसरे कानूनके अन्तर्गत मजिस्ट्रेटको दिया गया है। वह कानून ऐसे मामलोंके लिए है जिनमें जेलकी सजा निश्चित रूपसे नहीं बताई गई है। आशा तो यह की गई थी कि न्याय-कार्य करनेवाली तमाम संस्थाओंके कार्यपर विचार करनेका जो अधिकार उपनिवेशके सर्वोच्च न्यायालयको है उससे उसके वंचित किये जानेको सम्राज्ञीकी न्याय परिषद अवैध करार दे देगी; परन्तु, जैसा कि पाठकोंको याद होगा, उस परिषदने उलटा निर्णय दिया है। सर्वोच्च न्यायालयने भी यह निर्णय दिया है कि उक्त अधिनियमके मातहत दिये गये परवाने सिर्फ वैयक्तिक है और इसलिए वे, मान लीजिए किसी कम्पनीके पास, रह तो सकते हैं, परन्तु यदि उस कम्पनीको साख (गुडविल) बेची जाये तो खरीदारको उस कम्पनीके परवानेपर शेष अवधितक व्यापार करनेका अधिकार नहीं रहेगा। इस तरह, अधिनियमके अन्तर्गत कहीं कोई छिद्र छोड़ा ही नहीं गया है और न्यायिक व्याख्याने, उससे प्रभावित होनेवाले पक्षोंके अधिकारोंको छोटेसे-छोटे दायरे में सिकोड़ दिया है। बेचारे भारतीयोंने प्रार्थनापत्र भेजे हैं--दो उपनिवेश-मंत्रीको और एक लॉर्ड कर्जनको, जिनसे उन्होंने बहुत बड़ी आशा बाँध रखी है। वाइसरायके पाससे अभीतक कोई जवाब नहीं आया है और न आखिरी प्रार्थनापत्रका उपनिवेश-मंत्रीके पाससे ही। सिर्फ नेटाल-सरकारके पाससे इस आशयको सूचना मिली है कि उपनिवेश-मंत्रालय उसके साथ पत्र-व्यवहार कर रहा है।

यह कहने में कोई जोखिम नहीं कि नेटाल-उपनिवेशमें ३०० से ज्यादा भारतीय दूकानें या दूकानदारोंके परवाने और लगभग ५०० भारतीय फेरीवालोंके परवाने जारी है। ये परवानेवाले भारतीय समाजके इज्जतदार लोग है और उपनिवेशके उन ४,००० स्वतंत्र भारतीयोंका प्रति- निधित्व करते हैं, जो उन ५०,००० भारतीयों और उनके वंशजोंसे भिन्न है, जिन्हें गिरमिटिया प्रथाके अन्तर्गत मजदूर बनाकर नेटाल लाया गया है। अधिनियमने अपने अमलसे बहुतसे भारतीय दुकानदारोंको बरबाद कर दिया है और सभीके मनमें बेचैनी पैदा कर दी है। कुछ मामलोंमें परवाना-अधिकारियोंने अधिनियमको अधिकसे-अधिक तोड़ा-मरोड़ा है और यह कहने में जरा भी अतिशयोक्ति न होगी कि उन्होंने अपने अधिकारोंका उपयोग मनमाने और अत्याचारी ढंगसे किया है। और परवाना-निकायोंने उनकी इन कार्रवाइयोंकी उपेक्षा की है, और कभी-कभी तो उन्हें प्रोत्साहित किया है, और यहाँतक कि हुक्म देकर उनसे मनचाहा काम कराया है। सिर्फ नये परवाने देने से इनकार ही किया गया हो, सो बात नहीं; पुराने परवानोंके हस्तान्तरणकी मनाही भी की गई है; और पुराने परवानोंको नया नहीं कराने दिया गया, बल्कि कुछ मामलोंमें अन्यायके साथ अपमान भी जोड़ दिया गया है, और पीड़ित पक्ष अपने आपको बिलकुल शक्तिहीन महसूस करता रहा है। एक पुराना भारतीय अधिवासी मजदूरकी हैसियतसे उठकर इज्जतदार व्यापारी बन गया था। वह एक अन्दरूनी जिलेमें कई वर्षोंसे व्यापार कर रहा था। वह वहाँसे डर्बन चला आया और उसने एक छोटी-सी जायदाद खरीद ली। उसने सोचा था कि वह डर्बनके भारतीय मुहल्लेमें व्यापारका परवाना ले लेगा, और मुख्यतः भारतीय ग्राहकोंकी जरूरतें पूरी करेगा। उसने परवानेकी अर्जी दी, बताया कि उसने हिसाब रखनेके

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