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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उपयोग अधिक विवेकपूर्वक नहीं करेंगी जिससे कि निहित स्वार्थोपर आँच न आये - तो पीड़ित पक्षोंको सर्वोच्च न्यायालयमें अपील करनेका अधिकार दे दिया जायेगा। इस पत्रमें सरकारी तौरपर अन्यायको स्वीकार कर लिया गया है और उस उपायको भी मान लिया गया है, जो भारतीयोंने सुझाया है। परन्तु नेटालकी तीनों म्यूनिसिपैलिटियाँ इस पत्रकी उतनी ही कद्र करती हैं, जितनीके यह लायक है। वे नेटाल-सरकारकी ऐसी धमकीको शायद सुनती भी नहीं।

इस विषयमें न तो परवाना-अधिकारियोंका बहुत दोष है, न नगर-परिषदोंका। वे तो सिर्फ शिकार बन गये हैं। ऐसी ही स्थितिमें पड़ा हुआ कोई भी जन-समुदाय वैसा ही करेगा, जैसा कि नेटालके परवाना-अधिकारी और स्थानिक निकाय करते हैं। परवाना-अधिकारी या तो नगर- परिषदोंके क्लार्क है या खजांची। इसलिए, जैसा कि मुख्य न्यायाधीशने उपर्युक्त मामलेमें कहा है, अपनी उन संस्थाओंसे स्वतंत्र नहीं हैं, जिनके सदस्य, अपनी बारीमें, अपने पदोंके लिए उन लोगोंकी शुभेच्छापर निर्भर करते हैं, जो भारतीयोंके सीधे खिलाफ हैं। और उन संस्थाओंसे नेटालकी विधानसभाने कहा है :

हम भारतीयोंको पूर्णतः आपकी दयापर छोड़ते हैं। बस, आपके कामपर कोई अंगुली न उठाये, फिर आप चाहे उन्हें अपने बीचमें ईमानदारीसे जीविका अजित करने दें, या उन्हें बिना कोई मुआवजा दिये उससे वंचित कर दें।

इसलिए जबतक इस कानूनको, जिसे नेटालके राजनीतिज्ञों तकको मिला कर सभी लोगोंने स्वतन्त्र व्यापार और ब्रिटिश संविधानके संचित सिद्धान्तोंके विपरीत माना है, उपनिवेशकी कानून- पुस्तकको कलंकित करने दिया जाता है, तबतक सरकार ऊपर बताये हुए पत्र जैसे कितने भी पत्र निगमोंको क्यों न भेजे, शिकायत बनी ही रहेगी। भारतीय बहुत उचित बात कहते हैं : “आप हमपर स्वच्छता-सम्बन्धी जो पाबन्दियाँ लगाना चाहें, लगा दें; आप चाहें तो हमारा हिसाब- किताब अंग्रेजीमें रखायें; आपकी इच्छा हो तो हमपर ऐसी दूसरी कसौटियाँ मढ़ दें, जिन्हें पूरा करनेकी हमसे उचित रूपमें अपेक्षा की जा सकती हो; परन्तु जब हम उन तमाम शर्तोको पूरा कर दें तब हमें अपनी जीविका उपाजित करने दीजिए, और अगर कानूनका अमल करानेवाले अधिकारी दखल दें तो हमें देशके सर्वोच्च न्यायाधिकरणके सामने अपील करने का अधिकार दीजिए। इस रुखमें दोष दिखाना सचमुच बहुत कठिन है, और उससे भी ज्यादा कठिन है- उपनिवेशके सर्वोच्च न्यायालयके प्रति नेटाल-विधानमंडलके अविश्वासको समझना। परवाने देनेका यह प्रश्न एक सड़ा हुआ घाव है, जिसको अच्छा करना ही होगा। वह वर्त- मान भारतीय आबादीपर असर करता है, और काफी आसार दिखाई देते हैं कि अगर समयपर हस्तक्षेप न किया गया तो उसे बरबाद करके रहेगा। छोटे-छोटे भारतीय व्यापारियोंका, भले ही धीरे-धीरे क्यों न हो, निश्चित रूपसे मूलोच्छेद किया जा रहा है। इसका उनके पोषकों -बड़ी- बड़ी भारतीय पेढ़ियों और उनके आश्रितोंपर बहुत असर पड़ रहा है। भारतीय मकान-मालिक बहुत चिन्तित हैं, क्योंकि उनके मकान कितने ही अच्छे क्यों न बनाये गये हों, किरायेपर नहीं उठाये जा सकते । कारण यह है कि जब परवाने ही नहीं मिल सकते तो उन्हें ले कौन? वर्तमान वर्ष शीघ्र ही समाप्त हो रहा है, और सारेके सारे भारतीय चिन्ताके साथ राह देख रहे हैं कि अगले वर्ष उनके परवाने नये किये जायेंगे या नहीं। युद्धके कारण नेटाल खाली हुआ जा रहा है, और यह कोई नहीं जानता कि व्यापार फिरसे कब शुरू होगा और लोग कबतक अपने घरोंको लौट सकेंगे। फिर भी भारतीय जनताको सावधान रहना चाहिए और लगातार कोशिश करके इस

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