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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मूसलाधार पानी बराबर बरसता रहा। ... अन्तमें निर्णय हुआ कि रुका जाये और गाड़ियोंकी प्रतीक्षा की जाये। वर्षा अब बन्द हो गई थी-- यद्यपि बादल बतला रहे थे कि अभी और वर्षा होगी-- इसलिए बल्मीकके चूल्हे बनाये गये जिनपर हमने अपने गीले कपड़ोंको सुखानेकी कोशिश की (अधिकतर बिना सफलताके)।... ८ बजे जब कि हम कुछ-कुछ सूख गये थे और आगके प्रभावसे हममें ताजगी आ रही थी, अयनवृत्तको मूसलाधार वर्षा पुनः प्रारम्भ हो गई। सारे समय जोरोंकी हवा चलती रही और, असुविधाके लिहाजसे, मुश्किलसे ही इससे बदतर हालत हमारी हो सकती थी। आगेकी गाड़ी हवासे उड़कर इकट्ठी हुई बालूके ढेरमें गहरी धस गई, जिससे बैलों (३२) का संयुक्त बल भी उसे निकालने में बिलकुल असमर्थ रहा। . . . दूसरी सुबह ५० डोलियाँ अस्थायी अस्पतालके साथ निकल गईं। यहाँ मुख्य चिकित्सा अधिकारीके सचिव मेजर बैप्टीने नायकोंको कहला भेजा कि यह उनकी इच्छापर निर्भर है कि वे डोलियोंको नदीके उस पार करीब दो मीलकी दरीपर स्थित स्पियोन कोपके आधार-शिविरमें ले जायें या नहीं: क्योंकि वह स्थान बोअर गोलियोंकी पहुँचके भीतर है, और यह भी निश्चयसे नहीं कहा जा सकता कि वे एक-दो गोले नावके पुलपर भी न फेंक देंगे। यह भूमिका इसलिए बाँधी गई कि, जैसा मैंने ऊपर बताया है, लोगोंसे कहा गया था, उन्हें गोली-बारको सीमासे बाहर काम करना पड़ेगा। किन्तु स्वयंसेवक तथा नायक सभी खतरेकी परवाह न करके आधारशिविरमें जाने तथा वहाँका काम अपने हाथमें लेनेके लिए बिलकुल तैयार थे। शाम तक करीब सभी घायल स्थायी अस्पतालमें पहुंचा दिये गये। डोली-वाहकोंको अस्थायी अस्पतालसे अकसर तीन या चार बार आधार शिविर जाना पड़ता था। एकके बाद दूसरे अस्पताल-- मुख्यतः स्थायी अस्पताल--को लगातार खाली करने में पूरे तीन सप्ताह लग गये। इस बीच ५ चक्कर फ्रीयरके लगाने पड़े। तीन बार तो वाहकोंको एक दिनमें पूरे २५ मील चलकर घायलोंको ले जाना पड़ा और दो बार उन्होंने स्प्रिंगफील्डके लिटिल टुगेला ब्रिज या उसके नजदीक यूरोपीय डोली-वाहकोंसे घायलोंको लेकर पहुंचाया।

दलको कुछ ऊँचे अफसरोंको ले जानेका भी सम्मान मिला। मेजर जनरल वुडगेट उनमें से एक थे। जब-जब "हलके पाँववाले, लचीले कदमवाले" डोली-वाहक चिलचिलाती धूपमें, कठिन मार्ग पार कर पूरे २५ मील घायलोंको उठाकर ले गये, तब-तब, प्रत्येक बार, खुले आम कहा गया कि यह करामात सिर्फ वे ही कर सकते थे। नेटाल विटनेसका विशेष संवाददाता लिखता है:

एक आदमीके लिए जिसके पास अपना शरीर और अपने कपड़ोंके सिवा और कुछ भी बोझ न हो, ५ दिनमें १०० मील चलना, चलनेके लिहाजसे, काफी अच्छा माना जा सकता है। किन्तु जब आदमियोंको उससे आधी दूरीतक भी घायलोंको डोलियोंपर उठा कर ले जाना हो, और शेष मार्गका अधिकतर भाग भारी सामानके साथ पार करना हो, तब यह पैदल चलना, मेरे खयालमें, अत्यन्त सराहनीय कार्य माना जायेगा। इसी प्रकारका कठिन कार्य हाल ही में भारतीय आहत-सहायक दलने किया है और इस कार्यपर कोई भी व्यक्ति गर्व कर सकता है।

इस प्रकार सम्मानित तथा अपना कर्तव्य पूरा कर देनेके विचारसे सन्तुष्ट दलको दुबारा अस्थायी तौरपर भंग कर दिया गया। किन्तु हालकी घटनाएँ बताती है कि शायद इस दलकी सेवाओंकी पुनः आवश्यकता नहीं होगी।

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