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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

स्वयंसेवकोंका संगठन करके जो निःस्वार्थ और अति उपयोगी काम किया, उसके लिए मैं उनका जितना भी हार्दिक धन्यवाद करूँ वह थोड़ा ही होगा। उन्होंने यह कठिन कार्य ऐसे समय किया जब कि इसकी भारी आवश्यकता थी; और अनुभवसे पता लगा कि यह काम जोखिमसे भी खाली नहीं था। जिस-जिसने यह सेवा की वे सब समाजकी कृतज्ञताके पात्र हैं।

भारतीयोंने देशभक्त महिला संघ (विमन्स पैट्रिऑटिक लीग) के कोशमें भी एक रकम (५७ पौंडसे ऊपर) दी, जिसे बहुत अच्छी रकम बतलाया गया है। नेटाल मयुरीने इसके विषयमें लिखा था:

स्त्रियोंको देशभक्त-निधि धनके इस दानसे जो, विशेष रूपसे, रणभूमिपर बीमार और घायल स्वयंसेवकोंकी सेवाके लिए दिया गया है, भारतीयोंकी भावनाओंकी बहुत ही स्वागतके योग्य और मुखर अभिव्यक्ति हुई है। उनके विचारसे भारतीय शरणार्थियोंके विशाल समूहको ही सहायता दे देना -- जैसा कि वे खुले हाथों कर रहे हैं काफी नहीं है। बल्कि उन्हें, हमारा खयाल है, सम्राज्ञीके प्रति और जिस देशमें आकर वे रह रहे हैं उसके प्रति अपनी भक्तिके प्रतीकके रूपमें यह अतिरिक्त दान देना जरूरी मालूम हुआ है। हमारी आबादीका यह अंश जिसकी ओरसे अक्सर बहुत कम बोला जाता है--जिस सच्ची भावनासे उत्प्राणित है, उसे ऐसे राजभक्ति-प्रदर्शनसे ज्यादा भली भांति और कोई भी बात व्यक्त नहीं कर सकती।

भारतीय स्त्रियोंने इस सेवा-कार्यमें योग, घायलोंके लिए तकियोंके गिलाफ और रूमाल आदि बनाकर, दिया था। इनके लिए कपड़ा भी भारतीय व्यापारियोंने दिया था, जोकि उनके ऊपर उल्लिखित दानके अतिरिक्त था। इस सारे कठिन समयमें, भारतीय अपने देशवासी उन हजारों शरणार्थियोंकी भी सहायता करते रहे जो कि ट्रान्सवाल और इस उपनिवेशके बोअर-अधिकृत भागोंसे आये थे। और यह सब उन्होंने, लंदनसे आये हुए और यहाँ एकत्र किये हुए धनमें से कुछ भी लिये बिना किया। उस धनको व्यवस्था शरणार्थी-सहायक समिति द्वारा पृथक् की जाती रही।

डर्बनके मेयरने इस सेवाकी प्रशंसा (गत मार्च में कहे हुए ) इन शब्दोंमें की थी :

इस अवसरपर मेयरने भारतीय लोगोंको उनकी गत चार महीनोंके लगभगकी राजभक्तिके लिए धन्यवाद दिया। उनके बहुत-से बन्धुओंको उपनिवेशके ऊपरी भाग छोड़- कर, शरण लेने के लिए, यहाँ आना पड़ा था। उन्हें इन्होंने अपने आपमें मिला लिया, और उनके निर्वाहका व्यय भी ये ही उठाते रहे। इस सबके लिए मेयरने उनको हार्दिक धन्य- वाद दिया।

यहाँ इस बातका उल्लेख भी बिना किसी अभिमानके किया जा सकता है कि ये सब सेवाएँ कोई पारितोषिक पानेकी इच्छासे नहीं की गई थीं। ब्रिटिश प्रजा होनेके कारण विशेषाधिकारोंका दावा करते हुए हम इन कर्तव्योंकी ओरसे मुंह नहीं मोड़ सकते थे। तिसपर ये सेवाएँ भी निःसन्देह तुच्छ ही थीं। इनका इनाम कुछ हो भी नहीं सकता था।

यह उल्लेखनीय होगा कि कैप्टेन ल्यूमान, आई० एम० एस० ने जो भारतीय सैन्य-सहायक कोश (इंडियन कैम्प फालोअर्स फंड) खोला था, उसमें भी स्थानिक भारतीयोंने अच्छी सहायता की थी। उनका दान ५० पौंडसे ऊपर था। उपनिवेशमें जन्मे भारतीयोंने इसी प्रयोजनसे एक नाटक


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