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किया था और उसकी सारी आमदनी, जो २० पौंडसे अधिक थी, इस कोशमें दे दी थी। यूरोपीयों और भारतीयोंके सम्बन्ध कितने अच्छे थे, इसका एक उदाहरण यह है कि लेडीस्मिथ और किम्बरलेको लड़ाइयाँ जीत लेनेपर ब्रिटिश सेनापतियोंको बधाई देने के लिए भारतीयोंने जो बड़ी सभा की थी उसके सभापति सर जॉन रॉबिन्सन बने थे और उसमें पचाससे अधिक प्रमुख यूरोपीय नागरिक सम्मिलित हुये थे। उधर, भारतकी अकाल-पीड़ित जनताके लिए चन्देकी जो अपील निकाली गई थी उसका उत्तर नेटालके यूरोपीयोंने अति उदारतासे दिया था; उनके चन्देकी राशि २,००० पौंडसे ऊपरतक पहुँच गई थी। इस निधिके संरक्षक नेटालके गवर्नर, अध्यक्ष डर्बनके मेयर, अवैतनिक कोशाध्यक्ष प्रवासी भारतीयोंके संरक्षक, मन्त्री एक भारतीय सज्जन, और कार्यकारिणीके सदस्य अनेक प्रमुख यूरोपीय बाग-मालिक और व्यापारी हैं। एक वर्ष पूर्व ऐसा मेल मिलना असम्भव था।

नेटालके ब्रिटिश भारतीयोंके विषयमें प्रमुख यूरोपीयों को ये सम्मतियाँ उद्धृत करने के पश्चात् शिकायतोंकी चर्चा करने के लिए जमीन साफ हो गई है। २७ मार्च १८९७ को गश्ती चिट्ठी के साथ-साथ, निम्न सारांशको भी पढ़ लेना अच्छा होगा :

ट्रान्सवाल और ऑरेंज रिवर उपनिवेशके विषयमें अभी इसके अतिरिक्त और कुछ कहनेको आवश्यकता नहीं कि जिन सब शिकायतोंको दूर करने में उपनिवेश-कार्यालयने, इन दोनों राज्योंकी पहलेको स्थितिके कारण, भारतीयोंके साथ कितनी ही सहानुभूति रखते हुए भी, पहले अपनी असमर्थता प्रकट की थी, उनमें से कोई भी अब नये शासन-प्रबन्धमें बिलकुल नहीं रहने दी जायेगी, क्योंकि इनमें, नेटालकी तरह, उपनिवेश के स्वशासित होनेको भावनाका विचार भी नहीं करना पड़ेगा।

जूलूलैंड अब नेटालका ही एक भाग है। इस कारण उसको पृथक् चर्चा करनेकी आव- श्यकता नहीं। परन्तु यहाँ इतना अवश्य बतला देना चाहिए कि जब इसका शासन सीधा सम्राज्ञीके नामपर होता था तब कुछ नियम ऐसे थे जो जमीनोंको नीलामीमें भारतीयोंको बोली लगानेसे रोकते थे। वे नियम, इसे इस उपनिवेशमें मिलानेसे पहले, हटा दिये गये थे। नेटालमें स्थिति पूर्ववत् ही है । प्रवासी-प्रतिबन्धक अधिनियमका पालन आजकी परिस्थितियोंमें जितनी कठोरतासे किया जा सकता है उतनी कठोरतासे किया जा रहा है।

इसके अनुसार, ऐसा कोई भी व्यक्ति इस उपनिवेशमें प्रविष्ट नहीं हो सकता जो, इस अधि- नियमके साथ संलग्न फार्ममें, किसी यूरोपीय भाषामें, प्रार्थनापत्र न लिख सकता हो। अपवाद केवल उन व्यक्तियोंके लिए किया जाता है जो पहलेसे यहाँके निवासी बन चुके हों। अधिनियममें अनुमति न होते हुए भी, जहाजी कम्पनियोंको इस आशयकी चेतावनी दे दी गई है कि जिन भारतीयोंके पास यहाँका निवासी होने के प्रमाणपत्र न हों उनको वे यहाँ न लायें। ये प्रमाण- पत्र पहले सम्बद्ध व्यक्ति अथवा उसके किसी मित्र द्वारा मौखिक प्रार्थना करनेपर ही बिना मूल्य दे दिये जाते थे। फिर इनका २ शिलिंग ६ पेंस मूल्य लिया जाने लगा। इसके बाद, निवासी होने के प्रमाणके रूपमें, हलफनामा माँगा जाने लगा। फिर दो हलफनामोंकी शर्त लगा दी गई; और इसका प्रमाण भी मांगा जाने लगा कि प्रमाणपत्र लेने की प्रार्थना करनेवाला व्यक्ति कमसे-कम दो वर्षसे इस उपनिवेशका नागरिक है। और अब सबसे नई बात यह की गई है कि या तो उपनिवेशमें प्रवेश पानेके अभिलाषी व्यक्तिको अधिवासका प्रमाणपत्र लेनेका प्रार्थनापत्र स्वयं देना चाहिए, या किसी ऐसे व्यक्तिको शपथ लेकर अधिवासका प्रमाण पेश करना चाहिए, जिसकी प्रतिष्ठा सुविदित हो। इस प्रकार प्रकट है कि प्रतिबन्धका बन्धन समय

१. देखिए खण्ड २, पृष्ठ ३३२ ।

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