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है। पहले, यात्रा-पत्र देने के लिए २५ पौंडकी जमानत जमा करवाई जाती थी, और आगमन-पत्र या प्रस्थान-पत्र देते हुए १ पौंडकी फीस ली जाती थी। पीछे, भारतीय लोगोंके प्रार्थना करनेपर, सरकारने २५ पौंडकी रकम घटाकर १० पौंड कर देने और १ पौंडकी फीस हटा देनेकी कृपा कर दी। १० पौंडकी जमानत अब भी ली जाती है। यह रकम सरकारकी दृष्टिमें भले ही छोटी हो, परन्तु इसके कारण यहाँ आनेके अभिलाषियोंको बहुत कठिनाई होती है, और उनमें से सब उसे दे भी नहीं सकते। इस अधिनियमके कारण ही, ट्रान्सवालके भारतीय शरणार्थियोंसे भरे हुए एक जहाजको डेलागोआ-बेसे अपना मार्ग बदल लेना पड़ा था। इन शरणार्थियोंको नेटाल आने दिया जाता तो इनका युद्धके बाद भारतसे डेलागोआ-बेतक लौटनेका खर्च तो बच ही जाता; पहले ही जो भारत अकालसे पीड़ित है, उसपर इनका भी बोझ न पड़ता।

दूसरा अधिनियम है-- विक्रेता-परवाना अधिनियम (डीलर्स लाइसेन्सेज़ ऐक्ट) । इसे 'दूसरा' कहने से यह नहीं समझ लेना चाहिए कि इसका नम्बर महत्त्वकी दृष्टिसे भी दूसरा ही है। यह तो सबसे खराब है। हाँ, इस समय इसके दुष्प्रभावका अनुभव नहीं हो रहा है। टागेलासे परेका देश अब भी अर्ध-सैनिक शासन में है । न्यूकैसिल, लेडीस्मिथ और डंडोके निगम (कारपोरेशन) १८९८ में इस अधिनियमका क्रूरता तथा कठोरतापूर्वक प्रयोग करने के कारण बदनाम हो गये थे। वे, दुर्भाग्यवश, अबतक बोअरोंके शासनके कष्टोंसे मुक्त नहीं हो सके। डर्बन और मैरित्सबर्गके परवाना-अधिकारियोंने बहुत परेशान नहीं किया। जनवरीमें जब नये परवाने लेनेका समय आयेगा तब क्या होगा, यह अभीसे बतलाना कठिन है। परन्तु व्यापारी बेचारे अभीसे घबरा रहे हैं, क्योंकि उन्हें इस अधिनियमके कारण प्रतिवर्ष अनिश्चित अवस्थाओंका सामना करना पड़ता है । लन्दनके मित्रोंको स्मरण होगा कि श्री चेम्बरलेनने नेटाल सरकारको सुझाया था कि वह उस कानूनमें इस आशयका संशोधन करवा दे कि जिस धाराके अनुसार सर्वोच्च न्यायालयको पर- वाना-अधिकारियों या निगमोंके फैसलोंके विरुद्ध अपील सुननेके अधिकारसे वंचित कर दिया गया है, उसे अधिनियममें से निकाल दिया जाये। इसपर नेटाल-सरकारने सब नगरपालिकाको लिखा था कि यदि आपने इस अधिनियमके द्वारा मिले हुए अधिकारोंका प्रयोग न्यायपूर्वक न किया तो सरकारको इसमें उक्त संशोधन कर देना पड़ेगा। यहाँतक जितना-कुछ हुआ वह अच्छा ही हुआ, परन्तु आशा करनी चाहिए कि उपनिवेश कार्यालय इतने मात्रसे सन्तुष्ट नहीं होगा। न्यूनतम आवश्यकता यह है कि प्रत्येक भारतीय परवानेदारके सिरपर अनिश्चितताको जो तलवार लटक रही है उसे हटा लिया जाये, और यह काम सर्वोच्च न्यायालयको उसके अधि- कार पुनः देकर ही किया जा सकता है। प्रिटोरियामें जब श्री क्रूगरने उच्च न्यायालयके अधि- कार छीनकर अपने हाथ में ले लिये थे तब बड़ा शोर मचा था (और ठीक ही मचा था)। परन्तु इस छीना-झपटीसे थोड़ी-बहुत रक्षा शायद ट्रान्सवालके संविधानके रद्दीपनके कारण ही हो जाती थी। परन्तु नेटालका संविधान सुव्यवस्थित है, उसमें सब सावधानताएँ विद्यमान है, इस कारण देशके सर्वोच्च न्यायालयको अधिकार-च्युत कर दिये जानेपर संविधानसे सहायता नहीं मिल सकती, और खतरा बहुत भारी, वास्तविक तथा भयंकर हो जाता है, क्योंकि उसे विधान- मण्डलकी भी गम्भीर अनुमति मिल चुकी है।

इस कथनकी यथार्थताको समझने के लिए इतना स्मरण कर लेना पर्याप्त होगा कि ट्रान्स- वालमें कानूनोंकी अनिश्चितता होते हुए भी वहाँ क्या-कुछ होना सम्भव हो गया था। यहाँकी नगर-परिषदें ब्रिटिश संस्थाएँ होने के कारण, न्यायालयोंसे डरती और उनका सम्मान अवश्य करती है, परन्तु जब उनपर न्यायालयोंका स्वस्थ प्रतिबन्ध नहीं रहेगा तो वे क्या-कुछ कर डालनेका प्रयत्न करेंगी, इसकी कल्पना सुगमतासे की जा सकती है। युद्धके कारण इस मामलेमें


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