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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

उपनिवेश-कार्यालयतक जानेका रास्ता भी बन्द पड़ा है। इस सम्बन्धमें स्थानीय सरकारसे हमारा पत्र-व्यवहार चल ही रहा था कि युद्ध छिड़ गया, और यह उचित समझा गया कि बादलोंके बिखर जानेतक अगली कार्रवाई रोक दी जाये।

९ बजेके बाद घरोंसे बाहर न रहने के नियम और अन्य अनेक कठिनाइयोंका गश्ती- चिट्ठी में जिक्र किया जा चुका है। उन्हें यहाँ दुहराने की आवश्यकता नहीं। उनसे यह पता चल ही जाता है कि इस उपनिवेशमें भारतीयोंको क्या-क्या कष्ट उठाने पड़ते हैं। ब्रिटिश प्रजा होने के कारण, कागज-पत्रोंमें तो हम और उपनिवेशवासी एक ही हैं, परन्तु वास्तविकता ऐसी नहीं है। सचमुच एक हो जायें, इसके लिए तो हम बहुत-कुछ देने को तैयार हैं। यदि प्रवासी प्रतिबन्धक और विक्रेता-परवाना कानूनोंकी परेशानियां दूर हो गईं, तो अपेक्षाकृत छोटी- छोटी और शिकायतोंके कारण लन्दनके अपने मित्रोंको कष्ट देनेके लिए बहुतेरा समय मिल जायेगा।

एक बात हमारे हृदयको प्रतिदिन बड़ा कष्ट पहुँचा रही है, और वह है भारतीय बालकोंकी शिक्षाका प्रश्न । यहाँका शासन बहुमतसे चलता है। इस कारण शायद सरकार भी भारतीयोंकी सहायता करने में अपने को असमर्थ पाती है। यह अस्वाभाविक भी नहीं है। परन्तु इसका परिणाम यह हो रहा है कि भारतीय बालकोंके लिए साधारण प्राइमरी और हाईस्कूलोंके दरवाजे बिलकुल बन्द हो गये हैं। सुनते है कि डर्बन हाईस्कूलके मुख्याध्यापकने कुछ समय पूर्व शिक्षा मन्त्रीको लिखा था कि यदि एक भी भारतीयको दाखिल किया गया तो सब माता- पिता अपने बालकोंको निकाल लेंगे। परन्तु हमारा तर्क यह है कि सरकारी स्कूल जिन करोंके द्वारा चलाये जाते हैं उन्हें भारतीय और यूरोपीय, दोनों देते हैं, इसलिए उपनिवेश कार्यालयको चाहिए कि वह स्थानीय सरकारको स्पष्ट बता दे कि इन स्कूलोंमें शिक्षण पानेका भारतीयों और यूरोपीयोंका अधिकार समान है। मुख्याध्यापकने जो धमकी दी है (वह धमकीसे कम कुछ नहीं है), उसका तर्क-संगत परिणाम यह होगा कि यदि जीवनके हरएक पहलूमें उसपर अमल किया जाने लगा तो उपनिवेशमें भारतीयोंकी मान-मर्यादा बिलकुल नहीं रहेगी। यदि उपनिवेशमें किसी व्यापारिक स्थानके थोड़े-से यूरोपीय व्यापारियोंका गिरोह सरकारको यह धमकी देने लगे कि हमारे पड़ोसके कुछ भारतीय व्यापारियोंको हटा दो, वरना हम सारा बाजार खाली कर देंगे, तो उन्हें ऐसा करनेसे रोक कौन सकेगा?

आवश्यकता हो तो अधिक जानकारीके लिए निम्न वस्तुओंका संकेत दिया जाता है :

प्रार्थनापत्र (प्रवेश और व्यापारके परवानों आदिके विषयमें), २ जुलाई १८९७ ।

प्रार्थनापत्र (व्यापारके परवानोंके विषयमें), ३१ दिसम्बर १८९८ ।

सामान्यपत्र (परवाने), ३१ जुलाई, १८९९ ।

टाइम्स ऑफ इंडिया (साप्ताहिक संस्करण) के ११ मार्च १८९९, १५ और २२ अप्रैल १८९९, १९ अगस्त १८९९, ९ दिसम्बर १८९९, ६ जनवरी १९०० और १६ जून १९०० के अंकोंमें दक्षिण आफ्रिकाके भारतीयोंकी समस्याओंपर प्रकाशित विशेष लेख और सम्पादकीय टिप्पणियाँ।

छपी हुई मूल अंग्रेजी प्रतिको फोटो-नकल (एस० एन० ३४७४-ए) से।

१. उपर्युक्त दोनों प्रार्थनापत्र, सामान्यपत्र, नेटाल-गवर्नरके नाम प्रार्थनापत्र तथा विशेष लेख इस खण्डमें तिथि-क्रमसे दिये गये हैं।

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