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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

क्या मैं आपसे निवेदन कर सकता हूँ कि इस पत्रको, जितनी जल्दी मौका मिले, मेयर महोदय तथा परिषद-समितिके सामने पेश कर दें? और क्या मैं आशा कर सकता हूँ कि इसकी विषय-वस्तु जितना ध्यान देने लायक है उतना ध्यान इस पत्रपर दिया जायेगा? मुझे यह भरोसा भी है कि इसपर उसी भावनासे विचार किया जायेगा, जिससे इसे लिखा गया है।

आपका आशाकारी,
 
मो० क० गांधी
 

टाउन-कौंसिल, डर्बनके कागजातमें उपलब्ध मूल अंग्रेजी प्रतिकी फोटो-नकलसे ।

१०२. दादाभाई नौरोजीको'
डर्बन, नेटल
 
अक्टूबर ८, १९००
 

एकान्त विश्वासका

मान्यवर,

कांग्रेसका अधिवेशन नजदीक आ रहा है। इस दृष्टिसे, कांग्रेस क्या करे, इस बारेमें हम यहाँके लोग जो-कुछ सोचते है उसकी ओर आपका और आपके द्वारा हमारे अन्य नेताओंका ध्यान खींच देना अनुचित न होगा। मैं जानता हूँ कि हम लोगोंको, जो देशके प्रति आपकी सेवाओंका मूल्य समझते हैं, देखना चाहिए कि हम अनावश्यक रूपसे आपके ध्यानपर दखल न जमायें, जिससे कि आपका स्वास्थ्य ही बिगड़ जाये । इसलिए, अगर आप खुद इस विषयपर ध्यान न दे सकें, तो मुझे कोई संदेह नहीं, आप यह पत्र या इसकी नकलें, योग्य व्यक्तियोंके पास भेज देंगे। प्रस्तुत विषयपर विचार इस दृष्टिसे किया गया है कि उसका असर भारतीयोंके समग्र देशान्तर-प्रवासपर पड़ता है। इस दृष्टिसे यह अधिकतम राष्ट्रीय महत्त्वका विषय मालूम होता है। कांग्रेसके सामने पेश करनेके लिए एक प्रस्तावका मसविदा इसके साथ संलग्न है। लन्दनमें रहनेवाले मित्रोंके लिए खास तौरसे तैयार की गई टिप्पणियों की कुछ

१. यह दादाभाई नौरोजीके नाम लिखे हुए एक पत्रकी, साबरमती संग्रहालयके पत्रोंमें पाई गई अधरी नफल है।

(दादाभाई नौरोजी, देखिए. खण्ड १ पृष्ठ ३९३)।

२. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ।

३. कांग्रेसने “दक्षिण आफ्रिकाके प्रश्नपर, " निम्न प्रस्ताव स्वीकार किया था:

निश्चय हुआ: कि, यह कांग्रेस एक बार फिरसे भारत-सरकार और भारत-मन्त्रीका ध्यान दक्षिण आफ्रिकावासी भारतीयोंकी शिकायतोंकी ओर आकृष्ट करती है; और हार्दिक आशा करती है कि, उस महाखण्डमें सीमाओंका पुननिर्धारण हो जाने और भूतपूर्व बोअर गणराज्योंके ब्रिटिश प्रदेशमें मिला लिये जानेके कारण अब वे निर्योग्यताएँ नहीं रहेंगी, जो उन गणराज्योंमें भारतीयोंको सहन करनी पड़ती थीं और जिनको दूर करानेमें, उन गणराज्योंके आन्तरिक मामलों में स्वतन्त्र होनेके कारण, सम्राशी-सरफार असमर्थता महसूस करती थी; और यह कि नेटालमें, दूसरे कानूनों के साथ-साथ प्रवासी-प्रतिबन्धक तथा विक्रेता-परवाना अधिनियमोंके कारण, जो कि ब्रिटिश विधानके मूलभूत तत्वों तथा १८५८की घोषणाके स्पष्टतः प्रतिकूल है, वहाँ बते हुए भारतीयोंको जो गंभीर असुविधाएँ हो रही हैं उनको यदि बिलकुल दूर नहीं, तो भी बहुतांशमें कम तो कर ही दिया जायेगा ।

४. “टिप्पणियाँ: दक्षिण आफ्रिकावासी ब्रिटिश भारतीयोंकी वर्तमान स्थितिपर", सितम्बर ३, १९०० के बाद ।


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