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भाषण : कलकत्ता कांग्रेसमें

अभी, नहीं तो कभी कुछ नहीं हो सकेगा। यह सलाह ले लेने और जो फेरफार उन्हें करने हैं उनके एक बार हो जानेके बाद तो कुछ भी नहीं हो सकेगा। इंग्लैंडमें जो हमारे हितैषी हैं, वे अपने पत्रोंमें मुझे लिखते हैं: "भारतकी जनतामें आन्दोलन कीजिए। वह सभाएँ करे । अगर सम्भव हो तो वाइसरायके पास शिष्टमण्डल भेजिए और यहाँ हमारे हाथ मजबूत करनेके लिए जो-जो भी वहाँ किया जा सकता हो, कीजिए। अधिकारियोंको हमदर्दी है और आपको न्याय मिल सकता है । यह एक तरीका है, जिससे आप हमारे प्रति अपनी सहानुभूति प्रकट कर सकते हैं। परन्तु हम केवल जबानी सहानुभूति नहीं चाहते। हम आपसे धन भी नहीं चाहते । धनके मामलेमें तो दक्षिण आफ्रिकामें बसे हुए हमारे देशभाइयोंने यहाँके अकाल पीड़ितों की खासी सहायता की है। टाइम्स ऑफ इंडिया में अकाल पीड़ितोंके जो चित्र छपे थे उन्हें वहाँकी जनताके लिए हमने पुनः मुद्रित किया था । आप यह सुनकर आश्चर्य करेंगे कि उपनिवेशमें जो भाई पैदा हुए हैं उन्होंने जब इन चित्रोंको देखा तब उनकी आँखों में आँसू आ गये। केवल भारतीयोंने २,००० पौंड चन्दा दिया था । और मुझे स्वीकार करना चाहिए कि उस समय यूरोपीयोंने भी अच्छी मदद दी थी। परन्तु मैं तो प्रस्तुत विषयपर आऊँ । हमारे प्रतिनिधियोंमें प्रभावशाली पत्रोंके सम्पादक हैं, बैरिस्टर हैं, व्यापारी हैं, राजा-महाराजा आदि हैं। ये सब बहुत व्यावहारिक मदद कर सकते हैं। सम्पादक इस विषय में सही-सही जानकारी एकत्र करके अपने पत्रोंमें प्रवासी भारतवासियोंके सारे प्रश्नका और हमारे दुखड़ोंका व्यवस्थित विवरण दे सकते हैं । भिन्न-भिन्न प्रकारका व्यवसाय करनेवाले लोग दक्षिण आफ्रिकामें जाकर बस सकते हैं और इस तरह अपनी और अपने देशभाइयोंकी सेवा कर सकते हैं। मैं मानता हूँ कि कांग्रेस दूसरी बातोंके साथ-साथ यह भी प्रमाणित कर सकती है कि विदेशोंमें जाकर तरह-तरहके साहसिक काम करने और स्वशासन सम्बन्धी योग्यतामें हम संसारकी दूसरी सभ्य जातियों की अपेक्षा किसी प्रकार कम नहीं हैं । अब, अगर हम यूरोपीयोंके प्रवासपर नजर डालें तो देखेंगे कि शुरू-शुरूमें साहसिक लोग दूसरे देशोंमें जा पहुँचते हैं। उनके बाद व्यापारी वहाँ जाते हैं। इनके पीछे-पीछे मिशनरी, डॉक्टर, वकील, कारीगर, इंजीनियर और खेती करनेवालों आदिका ताँता बँध जाता है। ऐसी सूरतमें वे जहाँ-कहीं जाकर बसते हैं वहाँ स्वतन्त्र, वैभवशाली और स्वशासित कौमोंके रूपमें अगर जम जायें तो इसमें कौन बड़ी आश्चर्यकी बात है ? हमारे व्यापारी दक्षिण आफ्रिका, जंजीबार, मॉरिशस, फीजी, सिंगापुर, आदि संसारके भिन्न-भिन्न भागोंमें हजारोंकी संख्यामें गये हैं। क्या उनके पीछे भारतीय धर्मोपदेशक, बैरिस्टर, डॉक्टर, तथा अन्य पेशे करनेवाले भारतीय भी वहाँ गये हैं ? कितने दुःखकी बात है कि इन गरीब प्रवासी भारतवासियोंको धर्मकी शिक्षा देनेका प्रयास यूरोपीय धर्मोपदेशक करते हैं। यूरोपीय वकील-बैरिस्टर उनकी कानूनी सहायता करते हैं और यूरोपीय डॉक्टर जो उनकी भाषा भी नहीं जानते उनका इलाज करनेका प्रयास करते हैं। इन दूर देशोंमें बसे भारतीय व्यापारियोंको अपने अधिकारोंका कुछ भी ज्ञान नहीं। दिलमें खूब उत्साह है। परन्तु उसका उपयोग कहाँ और किस प्रकार करें यह वे नहीं जानते । बेचारे अपरिचित लोगोंके बीच पड़े हुए हैं । वहाँके लोगोंमें उनके बारेमें जाने क्या-क्या गलत धारणाएँ बनी हुई हैं और उन्हें दूर करनेमें वे अपने-आपको असमर्थ पाते हैं। ऐसी सूरतमें अगर वे अपने-आपको अंधेरेमें टटोलते हुए पायें और अपमान तथा अवमाननाओंके शिकार बनें तो इसमें आश्चर्यकी बात क्या है ? बेचारे यह सब चुपचाप सहते रहते हैं। आज शामको इस अधिवेशनका प्रारम्भ एक गीतके साथ हुआ, जिसके अन्तिम पद्यमें कहा गया है कि हमें विदेशों में जाना चाहिए। हमारे अन्दर नतिक साज-सज्जाके रूपमें शुद्ध प्रामाणिकता और स्वदेश-प्रेम हो, पूँजीके रूपमें ज्ञान हो और राष्ट्रीय बलके स्रोतके रूपमें एकता