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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कि सम्पादकने आपकी ओरसे ही अनुरोध किया था। मुझे लगता है कि विभिन्न उपनिवेशोंमें ब्रिटिश भारतीयोंके साथ व्यवहारके समस्त प्रश्नपर बहसके लिए जोर देनेसे लाभके बजाय हानि होनेकी ही ज्यादा सम्भावना है; क्योंकि विभिन्न उपनिवेशोंमें स्थिति एक जैसी नहीं है। उदाहरण के लिए नेटालमें प्रवासी-प्रतिबन्धक अधिनियम, विक्रेता-परवाना अधिनियम और इसी प्रकारके दूसरे अधिनियम, जिनकी नकलें समय-समयपर ब्रिटिश समितिको भेजी गई हैं, पहलेसे ही लागू हैं। नेटालके नमूनेका अनुकरण आस्ट्रेलिया और कैनडा दोनों में किया जा रहा है। इन स्थितियोंमें नेटालमें इनको रद कराना या आस्ट्रेलिया और कैनडामें नेटालके अनुकरणके प्रयत्नको विफल करना अगर असम्भव नहीं तो अत्यन्त कठिन अवश्य होगा। इसकी चाबी श्री चेम्बरलेनके उस भाषणमें मिलती है, जो उन्होंने हीरक जयन्तीके अवसरपर प्रधानमन्त्री सम्मेलनमें दिया था । उसके उद्धरणकी एक नकल[१] आपके पढ़नेके लिए भेजता हूँ । उन्होंने उपनिवेशोंको आधी रियायते दी हैं; परन्तु शायद ये आधी रियायतें पूरी रियायतों से कहीं ज्यादा खतरनाक हैं। क्योंकि, उनकी अप्रत्यक्ष विधानकी मंजूरीसे ऐसी शरारतकी सम्भावनाओंका मार्ग खुल गया है, जिनका कभी सपने में भी खयाल न था, यह आप मेरे वक्तव्यसे जान लेंगे। श्री चेम्बरलेनने अभी हालमें जो कुछ कहा है वह भी आशाजनक नहीं है। उससे औपनिवेशिक सरकारोंके भारत-विरोधी रुखको महज ताकत मिलेगी। इसलिए जहाँतक नेटालका सम्बन्ध है, इसका इलाज उस उपनिवेशके निवासी भारतीयोंके हाथोंमें है कि वे उपनिवेशकी सरकारको उचित व्यवहारके लिए राजी करें। यह न्यूनाधिक रूपमें पुराने कानूनों के प्रशासनका मामला है। जहाँ औपनिवेशिक सरकार नये प्रतिबन्ध कानून बनानेका प्रयत्न करे वहाँ वे ब्रिटेनकी सरकारसे अपील करें, और उनके मित्रोंका काम है कि वे उनकी सहायता करें। औपनिवेशिक कार्यालयके लगातार दबाव और ब्रिटेनके समाचारपत्रों में सहानुभूतिपूर्ण चर्चा---ये ही मुख्य प्रभाव हैं जिनसे, अनुमान है कि, नेटालके मन्त्री पसीजेंगे। मेरा खयाल है कि इंग्लैंड और भारतमें मित्रोंकी सहायतासे हम कुछ हदतक सफल हुए हैं। आस्ट्रेलिया और कैनडाका जहाँतक सम्बन्ध है, उपाय यह है कि वहाँ प्रस्तावित कानून, जिनका मसविदा दुर्भाग्यसे मैं नहीं देख पाया हूँ, हाथमें लिये जायें और उनकी तफ़सीलोंका विरोध किया जाये, जिससे वे यथासम्भव नरम हो सकें। प्रमुख मुद्दोंपर श्री चेम्बरलेनसे कोई सहायता नहीं मिलेगी । यदि बहसके लिए जोर डाला गया तो वे ऐसी तकरीर करेंगे जिससे उपनिवेशियोंका भारतविरोधी रुख और कड़ा हो जायेगा ।

दक्षिण आफ्रिकाके नये उपनिवेशों में हमारी स्थिति दूसरी जगहोंके मुकाबले बहुत ज्यादा मजबूत है, और होनी भी चाहिए। इसमें औपनिवेशिक कार्यालयका हाथ भी ज्यादा खुला है । इसी भारतीय-विरोधी कानूनके खिलाफ, जो अब लागू किया जा रहा है, श्री क्रूगरको भेजी गई पिछली आपत्तियोंकी शर्म ही श्री चेम्बरलेनको बिलकुल दूसरा रुख अपनानेके लिए बाध्य कर देगी। ट्रान्सवाल-कानूनपर हमारे प्रार्थनापत्रका उन्होंने जो उत्तर दिया, उसका एक उद्धरण साथमें भेजता हूँ।[२] तब उन्होंने मदद नहीं की थी। क्योंकि वे असमर्थ थे। अब वे पूरी तरह समर्थ हैं और मदद कर सकते हैं। उनके खिलाफ ऐसा निष्कर्ष निकालना, जो सराहनीय न हो, अनुचित प्रतीत हो सकता है। फिर भी हमें बहुत भय है कि अब उनका प्रेम पहले जैसा नहीं रहा; इसलिए यदि उचित निगरानी न रखी गई तो दोनों नये उपनिवेशोंमें वे हमारी स्थितिपर सम्भवतः झुक जायेंगे ।

  1. देखिए खण्ड २, पृष्ठ ३९६-८।
  2. यह यहाँ नहीं दिया गया है ।