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१८२. पत्र : मॉरिसको

राजकोट
मार्च ३१, १९०२

प्रिय श्री मॉरिस,

मुझे आपके दो पत्र कलकत्ते में मिले और तीसरा कलकतेसे पता बदलकर रंगून भेज दिया गया था, वहाँ मिला । आपके पिछले पत्रसे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि मैंने आपके पहले पत्रका जो उत्तर भेजा था, वह उस तारीखतक भी आपको नहीं मिला था। किन्तु आशा है, दक्षिण आफ्रिकाके लिए जहाजमें बैठनेसे पहले वह आपको अवश्य मिल गया होगा ।

आपकी यात्राको यथासम्भव सुखमय बनाने के लिए कलकत्तेमें मुझसे जो कुछ बन पड़ा हो उसके लिए आपने मुझे धन्यवाद देना उचित समझा है । मैं नहीं जानता कि मैं इसके योग्य हूँ | मैंने अपना कर्त्तव्य पालन करनेके अलावा और कुछ नहीं किया। काश, मैं कुछ और कर सका होता!

बहुत अधिक कठिनाइयोंके बाद मैं व्यापार-संघ ( चेम्बर ऑफ कामर्स) के अध्यक्षको तैयार कर सका। उसके फलस्वरूप वाइसरायसे एक बहुत ही सहानुभूतिपूर्ण उत्तर मिला है। मगर, बेशक, सिर्फ सहानुभूतिसे बहुत काम न चलेगा। उसके अनुसार कार्रवाई करवानेके लिए आवश्यक है कि भारतीय जनता एक भारी प्रयत्न करे ।

क्या ही अच्छा होता कि रंगूनकी समुद्र यात्रा और उत्तर-पश्चिमकी तीसरे दर्जेकी रेलयात्रामें आप मेरे साथ होते । आपके पत्रसे मेरी सारी इच्छा मर-सी गई, किन्तु मैंने सोचा कि मैं पहले बने कार्यक्रमको पूरा करनेके लिए बँधा हूँ, इसलिए मैंने वैसा किया। यह बताते हुए मुझे खुशी होती है कि इसके फलस्वरूप जो अनुभव हुआ उससे मेरी ज्ञान-वृद्धि हुई है । मैं मानता हूँ कि तीसरे दर्जेके मुसाफिरोंकी गन्दी आदतोंके सम्बन्ध में मैं आपसे पूर्ण रूप से सहमत नहीं हूँ। मैं नहीं जानता कि आपने मेरी तरह यूरोपीय रेलोंमें तीसरे दर्जेमें बैठकर यात्रा की है या नहीं। मैं यूरोपीय रेलोंकी अपेक्षा भारतीय रेलोंमें तीसरे दर्जेमें बैठना पसन्द करता हूँ, क्योंकि यूरोपीय रेलोंमें कभी-कभी तीसरे दर्जेके मुसाफिरोंका साथ स्वच्छताकी तथा अन्य दृष्टियोंसे भी मुझे बहुत अप्रिय लगा है। सो, श्री रोड्स चल बसे। उनकी नीतिको कोई चाहे कितना ही नापसन्द क्यों न करे, अब जबकि वे संसारमें नहीं हैं, आँसुओंको रोकना असम्भव है। इससे इनकार करना बहुत कठिन होगा कि वे साम्राज्य के सच्चे मित्र थे। आशा है, आप फिर केपटाउनमें स्थिर हो गये होंगे और आपका और आपके परिवारका स्वास्थ्य अच्छा होगा । यदि आपने पत्र न लिखा हो तो अब लिखिए ।

आपका सच्चा,

दफ्तरी अंग्रेजी प्रतिकी फोटो नकल (एस० एन० ३९५०) से ।