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१८५. दक्षिण आफ्रिकाके भारतीय

राजकोट
अप्रैल २२, १९०२

सेवामें

सम्पादक
टाइम्स ऑफ़ इंडिया

महोदय,

आपके १० तारीखके अंकमें एक तार इस आशयका छपा है कि नेटालकी विधान सभामें एक ऐसे विधेयकका द्वितीय वाचन पूरा हो चुका है जिसके द्वारा उस उपनिवेशमें गिरमिटिया भारतीयोंकी सन्तानोंपर भी वही सब प्रतिबन्ध लगा दिये जायेंगे जो उनके माता-पिताओंपर लगाये जाते हैं।

इस विधेयककी पूरी नकल न होनेसे इसकी आलोचना करना कठिन है, परन्तु चंकि दक्षिण आफ्रिकाकी डाकका यहाँ आना इतना ज्यादा अनिश्चित है और मैं जानता हूँ कि उस उपनिवेशमें विधेयक कितनी तेजीसे कानूनका रूप ले सकते हैं, इसलिए मैं इसपर कुछ कहनेका साहस करता हूँ ।

मेरा खयाल है, १८९३ में नेटाल-सरकार द्वारा नियुक्त प्रतिनिधि भारत-सरकारको इसलिए राजी करने भारत आये थे कि वह एक ऐसा कानून पास करने की अनुमति दे दे जिसके अनुसार गिरमिटिया भारतीय अपना गिरमिट समाप्त हो जानेपर या तो भारत लौट आयें, या प्रति वर्ष २५ पौंड व्यक्ति-कर (पोल टैक्स) दिया करें। इस प्रतिनिधिमण्डलके यहाँ आनेका एक लम्बा इतिहास है । वह दुःखदायी होते हुए भी मनोरंजक है । परन्तु अपनी बात संक्षेपसे कहनेके लिए, मुझे उसे छोड़ना पड़ रहा है । उस समयके वाइसराय परमश्रेष्ठ लॉर्ड एल्गिनने जहाँ २५ पौंड व्यक्ति-कर लगाने देनेसे बिलकुल इनकार कर दिया था, वहीं दुर्भाग्यवश उसे घटाकर ३ पौंड व्यक्ति-कर लगानेकी मंजूरी दे दी और इस प्रकार उसके सिद्धान्तको स्वीकार कर लिया । मुझे आशंका है कि उन्हें पता नहीं था कि बीस वर्ष पूर्व भी इसी प्रकारका एक असफल प्रयत्न किया गया था। उन्हें यह ज्ञात होता तो शायद वे अपनी स्वीकृति न देते ।

मुझे भय है कि जो काम १८९३ का प्रतिनिधिमण्डल नहीं कर सका था उसे, कुछ हदतक, इस विधेयक द्वारा पूरा करने की बात सोची गई है, क्योंकि इसके अनुसार गिरमिटिया माँ- बापोंकी सब सन्तानोंको (गोदके शिशुओंको भी) ३ पौंड कर देना पड़ा करेगा। यदि किसी गिरमिटिया भारतीयके सात बच्चे होंगे, जो कि कोई अनहोनी बात नहीं है, तो उसे अपने और अपने बच्चोंके लिए २४ पौंड प्रति वर्ष देने पड़ेंगे, जो उसके सामर्थ्य से सर्वथा बाहर की बात होगी । इस कठोर करके कारण लोगोंके आचार-विचारपर जो भारी दुष्प्रभाव पड़ेगा, मेरा हृदय तो उसकी कल्पना करके ही काँपने लगता है । जिस देशमें इन लोगोंको सचमुच निमन्त्रित किया गया है, अथवा मैं तो कहूँगा कि बहकाकर ले जाया गया है, उसमें ही जीवित रहने मात्रकी अनुमति पाने के लिए अब इन्हें इतना भारी दण्ड भरनेके लिए कहा जा रहा है।

लॉर्ड एल्गिनने १८९३ में जो कर लगाने की इजाजत दी थी उसके अन्यायका आपने भली- भाँति वर्णन किया था । स्वर्गीय सर वि० वि० हंटरने भी उसकी निन्दा की थी और गिरमिटकी

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