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टिप्पणियाँ: भारतीय प्रश्नपर

द्वारा शासित उपनिवेश था। इस कारण इस भ्रमका लाभ उठाकर कानून बनानेके प्रयत्न सफल नहीं हो पाये । परन्तु जब इस उपनिवेशको पूर्ण स्वशासनके अधिकार मिल गये तब यह भारतीय विरोधी कानून पास करनेमें सफल हो गया। पहली ही कोशिश, विशेष रूपसे भारतीयोंपर लागू होनेवाले कानून बनानेकी हुई । उदाहरणार्थ, एक विधेयक, भारतीयोंको मताधिकारका प्रयोग करनेसे रोकने के लिए पेश किया गया। इसपर भारतीयोंने आपत्ति की और अन्तमें उपनिवेश-मन्त्रीने इसे नामंजूर कर दिया। जब इस विधेयकके विरुद्ध आन्दोलन चल रहा था तब भारतीयोंने यह सर्वथा स्पष्ट कर दिया था कि उनकी इच्छा उपनिवेशमें कोई राजनीतिक अधिकार प्राप्त करनेकी नहीं है; परन्तु वे इसका विरोध इस कारण कर रहे हैं कि यह ब्रिटिश भारतीय निवासियोंके अधिकारोंको कम करनेका पहला कदम है। आगे चलकर उनकी यह बात सत्य भी सिद्ध हो गई । यद्यपि यह विधेयक तब नामंजूर कर दिया गया, फिर भी बादमें इसकी जगह एक और कानून बना दिया गया। वह यदि इससे अधिक बुरा नहीं तो इतना ही बुरा अवश्य था । इस दूसरे कानूनके अनुसार, जिन लोगोंने अभीतक अपने देशमें संसदीय मताधिकारका प्रयोग नहीं किया था वे इस उपनिवेशमें मत देनेके अयोग्य ठहरा दिये गये हैं । इस प्रकार परोक्ष कानून बनानेका द्वार खुल गया । उदाहरण के लिए, प्रवासी-प्रतिबन्धक अधिनियम और विक्रेता-परवाना अधिनियम स्वीकार किये गये । प्रवासी-प्रतिबन्धक अधिनियम उन लोगोंको उपनिवेशमें प्रविष्ट होनेसे रोकता है जो पहलेसे वहाँके निवासी न हों, या इस प्रकारके किसी व्यक्तिकी पत्नी या सन्तान न हों, या किसी यूरोपीय भाषामें छपे हुए फार्मपर शर्तें भरकर प्रार्थनापत्र न लिख सकते हों। विक्रेता-परवाना अधिनियम में उसके द्वारा नियुक्त परवाना अधिकारियोंको पूरा-पूरा अधिकार दे दिया गया है कि वे जिसे चाहें व्यापार करनेका परवाना दें, जिसे चाहें न दें। उनके फैसलेकी अपील केवल उन म्यूनिसिपल निगमोंमें हो सकती है जो इन अफसरोंको नियुक्त करते हों। इन निगमों (कॉरपोरेशनों) में ज्यादातर संख्यामें उन्हीं व्यापारियोंके प्रतिनिधि होते हैं जो अपने वश-भर अधिकसे-अधिक भारतीय व्यापारियों को परवानोंसे वंचित रखनेके प्रयत्नमें जुटे रहते हैं । यहाँतक कि ये निगम अपने अधिकारियोंको हिदायतें देते हैं कि किसको परवाना दें और किसको न दें। इस कानूनकी हदतक सर्वोच्च न्यायालयका अपीलें सुननेका परम्परागत अधिकार विशेष रूपसे समाप्त कर दिया गया है । परवाना-कानून एक नित्य बनी रहनेवाली परेशानीका सबब हो गया है; क्योंकि परवाने हर साल लेने पड़ते हैं, और जैसे-जैसे नया वर्ष पास आने लगता है भारतीय व्यापारी डर और चिन्तासे काँपने लगते हैं । इन सब कष्टदायक निर्योग्यताओंके होते हुए भी मुझे आशंका है कि इस समय प्रत्यक्ष रूपसे कुछ नहीं किया जा सकता; क्योंकि ये सब कानून नेटालके हैं और इन्हें ब्रिटिश सरकार बाकायदा मंजूरी दे चुकी है। परन्तु यूरोपीयोंको जितना मिल चुका है वे उतनेसे ही सन्तुष्ट नहीं हैं । वे अप्रत्यक्ष उपायोंसे भारतीयोंपर और भी कानूनी निर्योग्यताएँ लादनेको उत्सुक हैं । मेरे पास नेटालसे जो समाचारपत्र आये हैं उनसे पता चलता है कि हालमें नेटाल नागरिक सेवा निकाय (सिविल सर्विस बोर्ड) ने एक उपनियम अपनी परीक्षामें बैठनेवाले उम्मीदवारोंकी छँटाईके लिए बनाया है। उसके अनुसार जो माता-पिता ऊपर बताये हुए मताधिकार अपहरण कानूनके दायरेमें आते हैं उनके बालक इस परीक्षामें नहीं बैठ सकेंगे। मेरी सम्मतिमें यह उपनियम अवैध है; क्योंकि इससे उपनिवेशके संविधानके मूलपर ही कुठाराघात हो जाता है। यदि यह कानून नेटालके विधान-मण्डलने पास किया होता तो इसकी मंजूरी ब्रिटिश-सरकारसे लेनी पड़ती। साधारण सिद्धान्त यह है कि कोई उपनियम, जिस कानूनके अनुसार वह बना है, उस कानून या अधिनियमके क्षेत्रको न घटा सकता है, न बढ़ा सकता है।