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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मैंने नागरिक सेवा अधिनियम (सिविल सर्विस ऐक्ट) पढ़ा है और उसमें मुझे इस प्रकारका उपनियम बनानेकी इजाजत कहीं दिखाई नहीं दी। मैंने यह उदाहरण केवल यह दिखलाने के लिए दिया है कि अप्रत्यक्ष कानून बनानेके सिद्धान्तको कहाँतक खींचा गया है। निःसन्देह यदि आवश्यकता हुई तो नेटालमें भारतीयोंको इस उपनियमकी वैधता परखनी पड़ेगी। मैंने उन्हें उपनिवेशके गवर्नरकी सेवामें भी प्रार्थनापत्र भेजनेकी सलाह दी है।

समाचारपत्रोंमें हालमें प्रकाशित एक तार[१]से पता चलता है कि इस समय यूरोपीय एक नई दिशामें प्रवृत्तिशील हैं । १८९५ में गिरमिटिया प्रवासी-कानूनमें संशोधन करके गिरमिटकी मियाद बढ़ाकर १० वर्ष कर दी गई थी, और उसकी समाप्तिपर या तो भारत लौटना या, यदि उपनिवेशमें ही रहा जाये तो, ३ पौंड वार्षिक व्यक्ति कर देना अनिवार्य कर दिया गया था। अब प्रकाशित तारके अनुसार वे यह व्यक्ति-कर, गिरमिटिया प्रवासीके अतिरिक्त, उसकी सन्तानोंसे भी वसूल करना चाहते हैं ।

ट्रान्सवाल और ऑरेंज रिवर कालोनी

ट्रान्सवालमें भारतीय न तो जमीन खरीद सकते हैं और न पृथक् बस्तियोंके सिवा कहीं रह सकते हैं । वे सड़कोंकी पटरियोंपर नहीं चल सकते। उन्हें काफिरोंकी भाँति परवाने लेने पड़ते हैं । जब बस्ती-कानून पास हुआ था तब इसके विरुद्ध दिये गये भारतीय प्रार्थना-पत्रके जवाबमें और उसके बाद भी कई बार श्री चेम्बरलेनने बहुत सहानुभूतिपूर्ण बातें कही थीं। उन्होंने यहाँतक कहा था कि यदि वे अपने पूर्ववर्ती अधिकारीकी कार्रवाइयोंसे बँधे हुए न होते तो भारतीयोंको कहने लायक सुविधा दे सकते थे। इसके सिवाय लॉर्ड लैंसडाउनने तो यहाँतक कहा बतलाते हैं कि वर्तमान युद्धका एक कारण भारतीय लोगोंकी कानूनी निर्योग्यताएँ भी थीं।

इन परिस्थितियोंमें यह आशा स्वाभाविक थी कि जब देशपर ब्रिटिश शासन हो जायेगा तब भारतीयोंकी कानूनी निर्योग्यताएँ हटा दी जायेंगी। परन्तु डर है कि अब यह आशा पूरी नहीं होगी। लगता है श्री चेम्बरलेन टालमटोल कर रहे हैं। वे कहते हैं कि मैं लॉर्ड मिलनरसे सलाह कर रहा हूँ और पूछ रहा हूँ कि पुराने कानूनोंमें क्या-क्या परिवर्तन किये जा सकते हैं। ऐसा रुख बहुत खतरनाक है। ऐसे सलाह-मशविरेकी जरूरत ही क्या है ? निश्चय ही पहला काम यह होना चाहिए कि सब ब्रिटिश प्रजाओंका दर्जा समान घोषित कर दिया जाये और फिर यह विचार किया जाये कि प्रजाका कोई भाग विशेष व्यवहारका अधिकारी तो नहीं है। फिर भी मैं इस स्थितिको समझता हूँ और एक हदतक इसके साथ सहानुभूति भी रखता हूँ । १८९६ में जब उन्होंने अपना उपर्युक्त खरीता लिखा था तब यह नहीं सोचा था कि युद्ध इतनी जल्दी छिड़ जायेगा और वह भी इतने तीव्र रूपमें कि सारा देश उनके हाथमें आ जायेगा। अब उन्हें एक ओर तो भारतीयोंकी अति उचित और सर्वथा न्यायसंगत माँगें पूरी करनेमें और अपने खरीतेके अनुसार चलनेमें और दूसरी ओर भारतीय-विरोधी भावनाओंको सन्तुष्ट करनेमें कठिनाईका अनुभव हो रहा होगा। वे यह भी देख रहे मालूम पड़ते हैं कि उनके ही जीवन-काल और कार्यकालमें शायद दक्षिण आफ्रिकी संघका संघटन पूरा हो जाये । भारतीय प्रश्न उसकी पूर्तिमें अवश्य बाधक होगा; और यदि वे दक्षिण आफ्रिकामें भारतीय-विरोधी कानूनकी समस्या हल कर सकेंगे तो यह कठिनाई दूर हो जायेगी । मैं यदि भूल नहीं करता तो वे इसी कारण 'टालमटोल' कर रहे हैं । वे इस प्रश्नपर केप और

  1. देखिए “ पत्र : टाइम्स ऑफ इंडिया को, ” अप्रैल २२, १९०२ ।