पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 3.pdf/३०५

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नेटालका रुख जानना चाहते हैं और पुराने कानूनोंमें उतना ही परिवर्तन करना चाहते हैं जितना इन दोनों उपनिवेशोंको पसन्द हो।

तो यह स्पष्ट है कि भारतीय राजनीतिक पत्रकारोंको कौन-सा मार्ग अपनाना चाहिए । उन्हें अपनी समस्त उपलब्ध शक्तिका प्रयोग नये उपनिवेशोंमें ही करना चाहिए; और यदि वहाँ कोई सन्तोषजनक हल निकल आया तो नेटालको झुकना ही पड़ेगा। मेरी तुच्छ सम्मतिमें तो आन्दोलनका ढंग [...][१] भारतीय पत्र इस मामलेको जनता और सरकारके ध्यानमें निरन्तर लाते रहें । आंग्ल-भारतीयोंकी सहानुभूति भी इस मामलेमें हमारे साथ है, और हमें सब जोखिम उठाकर भी उन्हें अपने साथ रखना चाहिए। मैं इसके साथ श्री टर्नरके नाम लिखे हुए वाइसरायके एक पत्रकी नकल नत्थी कर रहा हूँ । उससे उनके विचारोंका तो पता लगता ही है, यह भी पता लगता है कि बंगाल व्यापार संघ (बंगाल चेम्बर ऑफ कॉमर्स) कुछ करने को तैयार है । सब सार्वजनिक संस्थाओंको मिल जाना चाहिए। यदि कोई संस्था विदेशोंमें जाकर बसने के प्रश्नका अध्ययन विशेष रूपसे अपना ले तो वह सारे आन्दोलनका संचालन ठीक प्रकारसे कर सकती है; और तब ब्रिटिश सरकार भी इस प्रश्नकी सुगमतासे उपेक्षा नहीं कर सकेगी ।

दक्षिण आफ्रिकामें हमें जीनेका अधिकार प्राप्त करनेके लिए एक ऐसी जातिके साथ संघर्ष करना पड़ रहा है जो अत्यन्त क्रियाशील और सम्पन्न है और जो हार मानना जानती ही नहीं । हमारी ओरसे भी इसी प्रकार निरन्तर प्रयत्न जारी रखा जानेकी आवश्यकता है । अन्तमें हमें सफलता अवश्य मिलेगी ।

कई नेताओंने मेरे साथ बात करते हुए निराशा दिखाई है। भले ही परिस्थिति बहुत कठिन है और किसी भी गलत कदमसे सफलतामें बाधा पड़ सकती है, फिर भी मैं उनके निराशामय विचारोंसे सहमत नहीं हूँ । इस आशावादिताका औचित्य सिद्ध करनेके लिए ही मैं यहाँ इस तथ्यका जिक्र करना चाहता हूँ कि कई मामलोंमें दक्षिण आफ्रिकाके यूरोपीय अपनी बात मनवानेमें सफल नहीं हुए हैं। उदाहरणार्थ, नेटालके एक भाग जुलूलैंडमें भारतीयोंको जमीन खरीदने के अधिकारसे वंचित करनेका कानून[२] पास भी हो गया था, परन्तु उसे नामंजूर कर दिया गया। प्रवासी-प्रतिबन्धक कानून और विक्रेता-परवाना कानून भी समझौते ही हैं। इन दोनों कानूनोंके मूल विधेयक इनसे बहुत बढ़कर थे। यह तो निरन्तर आन्दोलनका फल है कि नेटाल और ट्रान्सवालमें भारतीयोंको जैसे-तैसे पाँव रखने की जगह मिल गई। उपनिवेशों में हम पारस्परिक भ्रमोंका निवारण करके, उपनिवेशियोंकी कठिनाइयोंमें छोटे रूपमें ही क्यों न हो, उनके साथ सहानुभूति प्रकट करके और युद्धमें भाग लेकर उन्हें समझाने-बुझाने का यत्न करते रहे हैं।

ऑरेंज रिवर कालोनी में हमारी कठिनाइयाँ कहीं अधिक गम्भीर हैं। वहाँ भारतीयोंको किसी भी प्रकारके कोई अधिकार नहीं हैं । परन्तु मेरा खयाल है कि वहाँके भी कानून वैसे ही होंगे जैसे ट्रान्सवालके ।

दफ्तरी अंग्रेजी प्रतिकी फोटो नकल (एस० एन० ३९६३) से ।

  1. यह भाग पढ़ा नहीं जाता ।
  2. देखिए खण्ड १, पृष्ठ २९९-३०० |