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१९६. भारत और नेटाल[१]

जहाँ-जहाँ अंग्रेजी राज्य है, सब जगह इस समय साम्राज्य-भक्ति जोरोंसे लहरें मार रही है। ताजपोशी के अवसरपर उन सभी जगहोंमें खूब खुशियाँ मनाई जायेंगी, जहाँ यूनियन जैक फहराता है। ऐसे अवसरपर, जो लोग सम्राट् सप्तम एडवर्डका आधिपत्य मानते हैं, उन सबकी कामना यही होनी चाहिए कि समस्त ब्रिटिश प्रजामें शान्ति और सद्भावका प्रसार हो। जबतक सब ब्रिटिश प्रजाजनोंमें एकता, हेलमेल और सहिष्णुता नहीं है, तबतक सच्ची साम्राज्य-भावना हो नहीं सकती । नेटालको अभिमान है कि वह दक्षिण आफ्रिकाके उपनिवेशोंमें सबसे अधिक ब्रिटिश है; अतः हम देखें कि वह साम्राज्यगत भाईचारा सिद्ध करने और सबके बीच शान्ति तथा सद्भावके प्रसारमें मदद करने की बात किस तरह सोचता है । इस सुन्दर भूमिमें बसे हुए भारतीयोंके साथ नेटालकी सरकारने जो अन्याय किया है, उसकी ओर ध्यान आकर्षित किया जा चुका है। स्थिति कितनी गम्भीर हो गई है, यह समझनेके लिए हमें नेटालमें भारतीयोंके प्रवासका इतिहास जानना होगा ।

अनेक प्रयोगोंके बाद नेटाल उपनिवेशको १८६२ में ही यह पता चल गया था कि जबतक वह अपने कृषि-साधनोंके विकासके निमित्त भारतीय मजदूर नहीं बुलायेगा, तबतक "अपने पैरोंपर खड़ा" नहीं हो सकेगा । देशके चार लाख मूल निवासी आलसी और निकम्मे सिद्ध हो चुके थे। दूसरी ओर, वहाँकी आबोहवामें गोरोंके लिए खुले मैदानोंमें ज्यादा काम करना बहुत कष्टप्रद था । इसलिए जब "उपनिवेशका भाग्य ही डावांडोल" था तब भारत सरकारसे प्रार्थनाकी गई कि वह उपनिवेशको इस कठिनाईसे उबारे । प्रथम भारतीय प्रवासियोंको सभी प्रकारके प्रलोभन दिये गये, और भारतसे उपनिवेशमें लगातार प्रवासी आने लगे । बादमें जब उपनिवेशमें भारतीयोंको लानेकी उपयोगितापर शंकाकी गई तब इस सम्बन्धमें छानबीन करनेके लिए एक आयोग नियुक्त किया गया। उस आयोगके एक सदस्य श्री सॉडर्सने अपना मत इस प्रकार व्यक्त किया था :

भारतीय प्रवासियोंके आनेसे समृद्धि आई। भाव बढ़ गये। लोगोंको अब न-कुछ भावोंपर फसलें बोने या बेचनेसे सन्तोष नहीं रहने लगा। वे अब ज्यादा कमा सकते थे | युद्ध और ऊन, चीनी आदिके ऊंचे भावोंसे समृद्धि कायम रही। भारतीय जिन स्थानिक पैदावारोंका व्यापार करते हैं उनके भाव भी ऊँचे बने रहे।...

हमारे और दूसरे उपनिवेशोंके कागज-पत्र साबित करते हैं कि भारतीय मजदूरोंके आनेसे भूमिकी और उसके खाली क्षेत्रोंकी छिपी हुई शक्ति प्रकट और विकसित होती है और गोरे प्रवासियोंके लिए लाभप्रद रोजगार-धन्धेके अनेक नये क्षेत्र खुलते हैं। अगर हम १८५९ के सालपर गौर करें तो हम देखेंगे कि भारतीय मजदूरोंका हमें जो आश्वासन मिला था उससे राजस्वमें तुरन्त वृद्धि हुई और कुछ ही वर्षोंमें राजस्व

  1. गांधीजीका यह लेख (देखिए पृष्ठ २७६) पहली बार वॉइस ऑफ इंडिया में प्रकाशित हुआ था । इसका टाइप किया हुआ मसविदा गांधीजीके भतीजे और दक्षिण आफ्रिकाके साथी श्री छगनलाल गांधीके पास था । वह कई शाब्दिक परिवर्तनोंके साथ २३-१०-४९ के हरिजनमें पुनः छापा गया था ।