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भारत और नेटाल

चौगुना बढ़ गया ।. . . परन्तु कुछ वर्ष बाद आतंक फैला कि भारतीय मजदूरोंका आना सब जगह एक साथ स्थगित कर दिया जायेगा; बस राजस्व और मजदूरीमें गिरावट हो गई। . . . और फिरसे एक परिवर्तन हुआ, भारतीयोंका प्रवास पुनः शुरू होनेके आसारोंने अपना असर किया, और फिरसे राजस्वमें वृद्धि हो गई. . . इस तरहके लेखे स्वयं स्पष्ट होने चाहिए और इनसे छुकरपनकी तुनुकमिजाजी और क्षुद्र ईर्ष्याओंका अन्त हो जाना चाहिए।

उपनिवेशके वर्तमान प्रधानमन्त्रीने हमें अभी-अभी सूचित किया है कि भारतीय प्रवासियोंका आगमन बन्द करनेसे उपनिवेशके उद्योग-धन्धे ठप्प हो जायेंगे। इसका अर्थ है कि उपनिवेशके कल्याणके लिए भारतीय मजदूर निश्चय ही अनिवार्य हैं। सन् १८६२ में और वैसे ही १८९९ में भी भारतने ही संकटकी अवस्थामें उपनिवेशकी रक्षा की थी । यदि नेटालके अपने ही विधानसभा सदस्योंकी दी हुई जानकारी सही है, तो १८६२ में भारतीय मजदूरोंके अभावमें उपनिवेशका दिवाला निकल जाता। उधर, सारा संसार जानता है, १८९९ में यदि भारतीय सेना नेटालकी रक्षाके लिए न जाती, तो नेटालकी राजधानी और उसका बन्दरगाह बोअरोंके हाथों में होते ।

इन सब सेवाओंके पुरस्कारके रूपमें नेटाल संसदने एक विधेयक पास किया है। उसके अनुसार गिरमिटिया भारतीय मजदूरोंके बच्चोंको (१६ सालके लड़कों और १३ सालकी लड़कियों को) या तो ३ पौंड वार्षिक कर देना होगा, या यह कृत्रिम वयस्कता प्राप्त करते ही उपनिवेश छोड़ देना पड़ेगा, या जबतक उपनिवेशमें रहें तबतक बार-बार गिरमिटिया मजदूर बनना पड़ेगा। यहाँ हम यह भी कह दें कि गिरमिटिया मजदूरोंकी मासिक मजदूरी कमसे-कम १० शिलिंग और ज्यादासे-ज्यादा १ पौंड होती है। मजदूरीकी यह दर प्रचलित बाजार-दरसे बहुत कम है। इसके अतिरिक्त यदि गिरमिटिया मजदूर इन गिरमिटोंका भंग करें तो उनपर फौजदारी मुकदमा कायम किया जा सकता है, जब कि सामान्य शर्तनामोंके उल्लंघनका फैसला सिर्फ दीवानी अदालतमें हो सकता है ।

हमें यह याद करके दुःख होता है कि प्रवासियोंके बच्चोंपर व्यक्ति-कर लगानेका मार्ग प्रशस्त करनेवाली लॉर्ड एलगिनकी सरकार थी। उसने ही यह स्वीकार किया था कि उनके माता-पिताओं पर कर लगा दिया जाये। लेकिन हमें यह कहनेमें कोई झिझक नहीं है कि माता-पिताओंपर कर लगानेके आधारपर वैसा ही कर बच्चोंपर भी लगाना उचित नहीं ठहरता; क्योंकि माता-पिता तो उन शर्तोंसे परिचित माने जाते हैं जिनके अधीन वे नेटालमें आते हैं, और वकील कह सकते हैं कि यदि वे ऐसी कठिन शर्तें स्वीकार करते हैं, तो यह उन्हींके सोचने की बात है। लेकिन क्या यह भी माना जा सकता है कि बच्चों को भी इन शर्तोंकी खबर थी ? वे ऐसे माता-पिताओंसे पैदा हुए, यह बेशक एक भारी बदकिस्मती है । दुर्भाग्यसे उनका इसमें कुछ वश नहीं है। फिर माता-पिता तो यह भी जानते हैं कि गिरमिटिया मजदूरी क्या है, और भारत क्या है। लेकिन यही बात उपनिवेशमें उत्पन्न उनके बच्चोंके सम्बन्धमें नहीं कही जा सकती । कदाचित् कुछ शिक्षा प्राप्त कर लेने और उपनिवेशमें उसका मूल्य जाननेके बाद उनसे यह आशा करना परले दरजे की क्रूरता है कि वे या तो भारत चले जायें, या वह दरजा स्वीकार करें जिसे स्वर्गीय सर विलियम विल्सन इंटरने अर्द्धदासताका नाम दिया है।

यह प्रत्यक्ष है कि उपनिवेश गरीब भारतीयोंसे जो कुछ निचोड़ सकता है, निचोड़ लेना चाहता है। साथ ही वह भारतीय मजदूरोंको उपनिवेशमें लानेके परिणामोंसे बचना भी चाहता

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