पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 3.pdf/३२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२८७
प्रार्थनापत्र : चेम्बरलेनको

है कि उसके बाद, साधारणतया, पुराने परवानोंको फिर जारी करनेसे इनकार नहीं किया गया; परन्तु यह कानून ऐसा है कि कभी भी कितने ही व्यापारियोंके सर्वनाशका कारण बन सकता है, इसलिए जबतक इसे सुधारा न जायेगा तबतक हमारे लिए चैनसे बैठ सकना कठिन होगा । यहाँ हम इस कानूनसे हालमें हुए भारी अन्यायका एक उदाहरण देनेका साहस करते हैं । श्री अमद इब्राहीम नामके एक सज्जन इस उपनिवेशमें १७ वर्षसे व्यापार करते आ रहे हैं, वे अंग्रेजी भाषा भली प्रकार पढ़, लिख और बोल सकते हैं, और उन्हें ग्रेटाउनमें व्यापार करनेका परवाना छः वर्षसे मिला हुआ है । परन्तु इस वर्ष पुरानी इमारतसे एक नई और अच्छी इमारतमें दूकान बदलनेका उनका प्रार्थनापत्र, १३८ नगर-निवासियों द्वारा सिफारिश करनेपर भी बिना कोई उचित कारण बतलाये अस्वीकृत कर दिया गया । पिछले साल ग्रेटाउन-निकायने भारतीय व्यापारियोंके विषयमें यह प्रस्ताव पास किया था :

वर्तमान अरब व्यापारियोंके परवाने तभीतक फिरसे जारी किये जायेंगे जबतक कि वे उन्हीं व्यापारियोंके पास हैं। उन्हें फिरसे जारी करना या न करना निकायकी इच्छापर निर्भर है; परन्तु जो स्थान कोई व्यापारी खाली कर देगा उसके लिए किसी नये अरब व्यापारीको परवाना नहीं दिया जायेगा ।

उसी व्यापारीको ग्रेटाउनकी अपनी जमीनपर व्यापार करनेके लिए भी परवाना देनेसे इनकार कर दिया गया है। इसकी शिकायत परमश्रेष्ठ गवर्नरसे भी की गई थी, परन्तु उन्होंने बीचमें पड़ने से इनकार कर दिया ।

हमारी प्रार्थना केवल इतनी है कि ऊपर निर्दिष्ट निकायोंके निर्णयोंपर विचार करनेका अधिकार फिर सर्वोच्च न्यायालयको दे दिया जाये, क्योंकि अक्सर निकायोंके सदस्य स्वयं व्यापारी होते हैं और इस कारण उनका इन मामलोंमें स्वार्थ रहता है। हमारा जहाँतक वश था वहाँ तक हमने सब उपाय करके देख लिये । हम सम्राट्की न्याय परिषदतक भी गये थे, परन्तु उसने निर्णय दिया कि इस कानूनमें सर्वोच्च न्यायालयको कहने लायक सुविधा देनेका अधिकार नहीं है। हमारा खयाल है कि भारतीय लोग कानूनकी सफाई सम्बन्धी शर्तें पूरी करनेके लिए सदा तैयार रहते हैं । डर्बनके परवाना अधिकारी और स्वास्थ्य निरीक्षकतकने इसे माना है । इस सबके बाद भी जब हमें व्यापार करनेके परवाने नहीं मिलते तब हमें बहुत चोट लगती है और हमारा खयाल है कि ऐसा केवल हमारी खालके रंगके कारण होता है।

प्रवासी प्रतिबन्धक अधिनियम ८ मई १८९७ को लागू किया गया था। उन ब्रिटिश भारतीयोंपर तो इसका प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता ही है जो इस उपनिवेशमें आना चाहते हैं, परन्तु अप्रत्यक्ष रूपसे वे भी इससे प्रभावित होते हैं जो यहाँ पहलेसे बस चुके हैं । यहाँ बसने के इच्छुकोंपर जिस धाराका ज्यादा सख्त असर होता है वह शिक्षाकी शर्त लगानेवाली धारा है, जिसमें किसी-न-किसी यूरोपीय भाषाका ज्ञान होना जरूरी माना गया है। कोई भारतीय भाषा भली भाँति जाननेवाला व्यापारी इस कानूनके अनुसार निषिद्ध प्रवेशार्थी माना जायेगा। परन्तु इसके कारण सबसे अधिक परेशानी तब होती है जब कि उपनिवेशमें बसे हुए व्यापारी, कोठारियों, विक्रेताओं, सहायकों, मुंशियों, रसोइयों और घरेलू नौकरों आदिको स्वदेशसे बुलाना चाहते हैं । जो लोग पहलेसे यहाँ बसे हुए हैं वे अंग्रेजी जानें चाहे न जानें, उन्हें इस कानूनके अनुसार आने-जानेकी स्वतन्त्रता अवश्य है, परन्तु उनमेंसे हमेशा अभीष्ट कार्यकर्ता नहीं मिल पाते । नेटाल-सरकारसे बहुधा प्रार्थना की जाती रहती है कि स्थानीय आवश्यकता की पूर्तिके लिए उक्त प्रकारके व्यक्तियोंको आने दिया जाये, परन्तु केवल कुछ असाधारण अपवादोंको