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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

किसी समय केवल गन्ना उत्पादक ही भारतीय मजदूरोंका बहुत उपयोग करते थे, किन्तु अब तो देशके भीतरी भागके किसानोंको भी उनकी सेवाओंकी उतनी ही आवश्यकता है; और केवल किसानोंके लिए ही नहीं, बल्कि खान-मालिकों, ठेकेदारों, कारखानेदारों और व्यापारियोंके लिए भी वे आवश्यक हैं।

इस प्रकार स्पष्ट है कि नेटाली लोकमतके अधिक विचारवान् नेता इस प्रस्तावका अनौचित्य भली प्रकार समझते हैं और यह आशा नहीं करते कि भारत सरकार इसे स्वीकार कर लेगी। किन्तु यदि यह अन्यथा हो, तो भी प्राथियोंकी विनम्र सम्मतिमें इस प्रश्नपर भारतीय दृष्टिकोणके सम्बन्धमें दो मत नहीं हो सकते। यदि भारतीय मजदूर भारत लौटनेके लिए विवश किया गया तो भारतमें ही प्रवास-कानूनके निर्माणका उद्देश्य नष्ट हो जायेगा। यह भारतीय प्रवासियोंके संरक्षण और लाभकी दृष्टिसे बनाया गया था, उपनिवेशोंके लाभके लिए नहीं । प्रार्थियोंकी विनम्र सम्मतिमें नेटाल अब भी अत्यन्त अनुकूल शर्तोंका उपभोग कर रहा है। इस साझेदारीमें उसे पहलेसे ही सिंहभाग प्राप्त है । किन्तु वह अब उससे भी कई कदम आगे बढ़ना चाहता है । उसकी महत्त्वाकांक्षाका चरम लक्ष्य तो यह है कि "कुली उपनिवेशमें या तो गुलाम बनकर रहें या, वे स्वतंत्र रहना चाहते हों तो, भारत लौट जायें।" भारत लौटनेपर उन्हें, नेटालके एक विधानमंडल-सदस्य स्वर्गीय श्री सांडर्सके शब्दोंमें, “भुखमरीका सामना करना पड़ सकता है"--- इसपर विचार करना उपनिवेशके लिए जरूरी नहीं है ।

अनिवार्य वापसीके समर्थनमें मुख्य दलील यह दी जाती है कि जिन शर्तोंको पूरा करने का इकरार कोई आदमी स्वेच्छासे करता है उनमें कठिनाईका कोई प्रश्न नहीं उठना चाहिए। परन्तु नेटाल-सरकार द्वारा नियुक्त एक आयोगके सामने गवाही देते हुए, नेटालके एक-कालीन प्रधानमंत्री परम माननीय स्वर्गीय श्री हैरी एस्कम्बने कहा था :

एक आदमी यहाँ लाया जाता है। सिद्धान्ततः रजामन्दीसे, व्यवहारतः बहुधा बिना रजामंदीके लाया जाता है। वह अपने जीवनके सर्वश्रेष्ठ ५ वर्ष दे देता है। नये सम्बन्ध स्थापित करता है। शायद पुराने सम्बन्धोंको भुला देता है। ऐसी हालतमें, मेरे न्याय और अन्यायके विचारसे, उसे वापस नहीं भेजा जा सकता ।

इस दलीलका उत्तर स्वयं भारत सरकारने ही दे दिया है। उसने नियम बना दिया है कि ये लोग, सरकारी निगरानीमें ही, देशसे बाहर जा सकते हैं। अन्यथा इनका प्रवास निषिद्ध है। इसका अर्थ यह है कि इनकी दशा अभी उन छोटे बालकों जैसी है जो अपना भला-बुरा आप नहीं समझ सकते।

प्रार्थी परमश्रेष्ठका ध्यान सादर उस प्रार्थनापत्रकी ओर दिलाना चाहते हैं जो इस प्रार्थना-पत्रमें निर्दिष्ट ३ पौंडके व्यक्ति-कर[१] के विषयमें, आपके पूर्वाधिकारीको भेजा गया था, और जिसमें यह दिखलानेके लिए साक्षियाँ संगृहीत थीं कि किस प्रकार १८८७ में नेटाल सरकारके एक आयोग द्वारा इस प्रश्नपर पूरा-पूरा विचार किया जा चुका है और किस प्रकार उसने गिरमिटियोंकी अनिवार्य वापसीके विरुद्ध सिफारिश की थी। नेटालमें भी प्रत्येकका मत इसके विरुद्ध था । इसलिए प्रार्थियोंको भरोसा है कि परमश्रेष्ठ नेटालके एक-पक्षीय लाभके लिए भारतीय मजदूरोंका शोषण नहीं होने देंगे।

इस कारण प्रार्थियोंकी नम्र प्रार्थना है कि यदि यह उपनिवेश गिरमिटिया भारतीयों को ब्रिटिश नागरिकताके प्रारम्भिक अधिकार, अर्थात्, उपनिवेशमें बसनेकी स्वतंत्रता भी देने को तैयार

  1. देखिए खण्ड १, पृ४ २१३ |