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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

निर्णयोंपर पुनर्विचार करनेका अधिकार हो । ऐसे विधानमें भारतीय अधिवासियोंके विरुद्ध उठाई जा सकनेवाली प्रत्येक उचित आपत्तिका विचार शामिल होगा ।

ईस्ट लंदन

स्पष्टतः, पैदल-पटरी सम्बन्धी उपनियम अब अमलमें है। एक भारतीयको, जो स्वच्छ वस्त्र पहने था, पैदल पटरियोंपर चलनेके कारण २ पौंड जुर्माना किया गया है । ईस्ट लंदन भारतीय संघने ब्रिटिश समिति और सर मंचरजीको इस सजाके बारेमें तार भेजा है।

[ अंग्रेजीसे ]

इंडिया ऑफ़िस : ज्यूडिशियल ऐंड पब्लिक रेकर्ड्स, ४०२ ।

२३१. पत्र : दादाभाई नौरोजीको

फोर्ट चेम्बर्स, रिसिक स्ट्रीट
पो० ऑ० बॉक्स ६५२२
जोहानिसबर्ग
मई १०, १९०३

माननीय दादाभाई नौरोजी

लंदन

प्रिय महोदय,

आपके गत १६ अप्रैलके पत्रके लिए मैं आपका बहुत आभारी हूँ ।

लॉर्ड जॉर्जका उत्तर जितना है उतना संतोषजनक है । परन्तु वांछित विधानके पास होनेमें जितनी ही देर लगेगी उतनी ही ज्यादा कठिनाइयाँ बढ़ेंगी। हम इस कथनका पूरी तौरसे समर्थन करते हैं कि सस्ते मजदूरोंकी बेकार भरमारपर रोक लगानी चाहिए। भारतीय मजदूर इस उपनिवेशमें बड़ी संख्यामें आते भी नहीं हैं। परन्तु जैसा कि आप उन महत्त्वपूर्ण कागजों[१]से देखेंगे जिन्हें मैं इसके साथ नत्थी कर रहा हूँ, हम, अपनी प्रामाणिकता दिखाने के लिए, नेटालके आधारपर बना विधान मानने को तैयार हैं। पर उसमें वे उचित सुधार अवश्य हो जाने चाहिए जो साथके कागजोंमें सुझाये गये हैं। बाजारोंके बारेमें, मुझे यह कहना है कि एक भी भारतीयने बाजारोंमें जबरदस्ती रखे जानेके सिद्धान्तको स्वीकार नहीं किया है । परन्तु यदि इसका प्रयोग नये प्रार्थियोंके लिए किया जाये तो हम बाजार-प्रथाको सफल बनानेके लिए सरकारसे सहयोग करनेको तैयार हैं। असली बात यह है कि इस तरहका कोई कानून न होना चाहिए जो भारतीयमात्रको बाजार-प्रथा मंजूर करनेके लिए मजबूर करे। इतना मैं यहाँ और कहना चाहता हूँ कि यहाँके लोगोंकी दृष्टिमें बाजार बस्तियोंका केवल एक खुशनुमा नाम है । मैं इसके साथ एक पत्र नत्थी करता हूँ, जो मैंने इस प्रश्नपर सरकारको भेजा था। वह पत्र भी नत्थी है जो ट्रान्सवालके यूरोपीयोंके प्रार्थनापत्रके साथ उसे भेजा था । यूरोपीयोंका यह प्रार्थनापत्र भी भेज रहा हूँ ।

  1. साथके फागज ये थे : "पत्र: उपनिवेश मन्त्रीको", फरवरी १८, १९०३ "पत्र: लेफ्टिनंट गवर्नरको", मई १, १९०३; “टिप्पणियाँ : अबतककी स्थितिपर, मई ९, १९०३ और लेफ्टिनेंट गवर्नरको यूरोपीयोंका प्रार्थनापत्र, अप्रैल १९०३, देखिए सहपत्र पृष्ठ २१९-२०