पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 3.pdf/३६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३२५
ब्रिटिश भारतीय संघ और लॉड मिलनर

हमारी मुसीबतोंका अन्त दीखने लगा है । परन्तु दूसरे ही दिन सुबह हमें परमश्रेष्ठ लेफ्टिनेंट गवर्नर, ट्रान्सवालका पत्र मिला जिससे मालूम हुआ कि सरकार सन् १८८५का तीसरा कानून लागू करनेवाली है और उसमें बिलकुल तबदीली न की जायेगी। यह बिलकुल सच है कि कुछ एशियाइयोंने पिछली हुकूमतमें यह कर चुकाया था । असलमें यह कर चुकाये बिना उन्हें यहाँ व्यापार करनेका परवाना ही न मिल सकता था। लेकिन उसपर कभी नियमपूर्वक अमल नहीं किया गया। सन् १८८५ में जब यह कानून मंजूर हुआ तब ब्रिटिश भारतीयोंकी तरफसे शिकायतोंका ताँता बँध गया और उपनिवेश कार्यालयसे बोअरोंके इस करको लगाने और कानून बनानेके अधिकारके सम्बन्धमें बहुत कुछ पत्र-व्यवहार हुआ । अन्तमें पिछली हुकूमत पंच-फैसलेके लिए राजी हो गई; परन्तु पंचोंने अपना फैसला[१] भारतीयोंके खिलाफ दिया । फिर भी श्री चेम्बरलेनने कहा कि वे ट्रान्सवाल-सरकारसे मित्रवत् प्रार्थनाका अपना अधिकार तो सुरक्षित रखते हैं। उन्होंने ट्रान्सवाल-सरकारसे भी यह कह दिया कि ब्रिटिश भारतीयोंके साथ उनकी हार्दिक सहानुभूति है । आखिर यह कानून कभी पूरी तरह लागू नहीं किया गया। जब सन् १८९९ में बस्ती कानूनपर अमल करनेका प्रयत्न किया गया, तब एक शिष्ट-मण्डल सर कनिंघम ग्रीन और एमरिस इवान्ससे मिला। एमरिस इवान्स पीछे सरकारी वकील डॉक्टर क्राजसे मिले। डॉ० काज़ने उनको यह आश्वासन दिया कि बस्तियोंमें जानेसे इनकार करनेपर लोगों के खिलाफ मुकदमे दायर करनेके बारेमें उनको कोई निर्देश नहीं मिले हैं। परन्तु अब तो स्थिति पूरी तरह बदल गई है और हम कर देने और बाजारोंमें जानेके लिए मजबूर किये जाने-वाले हैं। मैं नम्रतापूर्वक निवेदन करता हूँ कि भारतीयोंके लिए यह बोझा बहुत दुःखदायी होगा । भारतीय बड़ी संख्यामें हजूरियों, घरेलू नौकरों और बैरोंका काम करते हैं और लगभग ३ पौंड मासिक वेतन पाते हैं । इस तरह उनकी साल भरकी आयका बारहवाँ हिस्सा इस करके रूपमें निकल जायेगा । फिर यह कर एक तरहकी सजाकी कार्रवाई भी है, क्योंकि अगर भारतीय यह कर अदा नहीं करेंगे तो कानूनमें यह व्यवस्था है कि उनपर १० पौंडसे १०० पौंडतक जुर्माना किया जा सकता है और जुर्माना न देने पर उन्हें चौदह दिनसे लेकर छः महीनेतककी कैदकी सजा दी जा सकती है।

लॉर्ड मिलनर : क्या यह कर सालाना है ?

श्री गांधीने कहा : यह कर सालाना नहीं है। यह सिर्फ एक बार दिया जाना है। इसका उद्देश्य इस देशमें भारतीयोंका प्रवास रोकना है । परन्तु हमें इस बातसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि जो लोग इस उपनिवेशमें बसे हुए हैं, यह उनपर भी लगाया जा रहा है।

पासोंके बारेमें श्री गांधीने कहा : शुरू-शुरूमें जब भारतीय शरणार्थी ट्रान्सवालमें वापस लौटे तब एशियाई दफ्तरने उनसे पुराने अनुमति पत्र ले लिये और उन्हें अस्थायी नये पास दे दिये । अगर कोई ट्रान्सवाल-निवासी भारतीय दक्षिण आफ्रिकाके किसी दूसरे हिस्सेमें अपने मित्रसे मिलना चाहता तो उसके लिए भी पास आवश्यक था। ये पास कितने दिनके लिए हों, यह पास-अधिकारी तय करता था। इसके अलावा और भी बहुत-सी अनावश्यक मुसीबतें थीं। इसके बाद ये पास फिर अनुमति पत्रोंके रूपमें बदल दिये गये । इस आशयकी सूचना अखबारोंमें देनेके बजाय भारतीय केवल यही बतानेके लिए दफ्तरमें लाये जाते थे । एक बार तो सुबह चार बजे कुछ भारतीय अपने घरोंमें से घसीट कर लाये गये और केवल यह बात सुनानेके लिए साढ़े नौ बजेतक दफ्तरमें खड़े रखे गये कि उनके पास अब कामके नहीं रहे, अतः उनके बजाय

  1. देखिए खण्ड १, पृष्ठ १७७-७८ और १९०-९४ ।