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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

नेटालमें एक कानून जारी है, जिसका नाम है प्रवासी-प्रतिबन्धक अधिनियम[१]| यह कानून बाहरसे आनेवाले उन तमाम लोगोंके प्रवेशपर कड़ी रोक लगाता है जो पहलेसे ही नेटालके निवासी नहीं बन गये हैं, या जो यूरोपकी किसी भाषाको लिखना पढ़ना नहीं जानते हैं। एक और भी कानून है जिसका नाम है विक्रेता परवाना अधिनियम[२] । यह कानून व्यापारी-वर्गको पूरी तरहसे परवाना अधिकारियोंकी दयापर छोड़ देता है। वे जिसे चाहें परवाना दें, जिसे न चाहें न दें। और परवाने तो हर साल लेने ही पड़ते हैं ।

इनके अलावा बाहर निकलनेके पासों[३]के बारेमें कुछ तकलीफ देनेवाले कानून हैं, जिनके अनुसार प्रतिष्ठित भारतीयोंको--- मर्दोंको और औरतोंको भी दिनमें अथवा रातमें शहरमें हों या गाँवोंमें, गिरफ्तार किया जा सकता है। फिर शिक्षाका प्रश्न दिन-ब-दिन गम्भीर रूप धारण करता जा रहा है। तमाम सार्वजनिक शालाएँ भारतीय बच्चोंके लिए बन्द कर दी गई हैं। सरकारने हालमें ही भारतीयोंके लिए ऊँचे दर्जेवाली शालाएँ खोली हैं। इनमेंसे एक तो डर्बनमें है और दूसरी मैरित्सबर्गमें । परन्तु यहाँ तो केवल प्राथमिक पढ़ाई होती है। और इसके बाद शालाका पाठ्यक्रम खत्म होनेपर लड़कोंके लिए आगेकी पढ़ाईका कोई प्रबन्ध नहीं है। उपनिवेशकी राजधानीमें नगर परिषदने एक प्रस्ताव मंजूर किया है, जिसके अनुसार सम्राट्के हिन्दुस्तानी प्रजाजनोंको कोई शहरी जमीन बेची या पट्टेपर नहीं दी जा सकती । उधर प्रधानमन्त्रीने डर्बनकी नगर परिषदको ट्रान्सवालकी सरकार द्वारा जारी किये गये सन् १९०३ के नोटिस नं० ३५६ की नकलें भेज दी हैं, जो "एशियाइयों[४]" के वहाँ बसने और व्यापारके परवानोंके बारेमें हैं । यह अशुभ चिह्न है ।

गिरमिटियोंकी भी खासी बड़ी आबादी इस देशमें है। वह परिस्थितिको और भी अधिक मुश्किल बना देती है । इन लोगोंकी हालत और भी बुरी है। गिरमिटियाकी हालतमें पूरे पाँच साल मजदूरी करनेके बाद जब आदमी उस शर्तसे मुक्त होता है तब उसपर उपनिवेशके मामूली कानून तो लगते ही हैं, उनके अलावा कुछ खास कानून भी लगते हैं। इस तरह या तो उस गरीबको फिरसे बार-बार गिरमिटिया बनना पड़ता है, या पुनः अपनी मातृभूमि भारतको लौट जाना पड़ता है। किन्तु अगर वह यहीं रहना चाहे तो उसे एक सालाना कर, तीन पौंडका व्यक्ति कर देना पड़ता है, जिसे विधान-मण्डलने तीन पौंडके परवानेका प्रतिष्ठित नाम दे रखा है। हालमें ही एक नया कानून और बना है जो इस करको शर्त-मुक्त गिरमिटियोंके बालिग बच्चों अर्थात् १३ वर्षकी लड़कियों और १६ वर्षके लड़कोंपर भी लाद देता है ।[५]"

केप कालोनीने पिछली फरवरीमें एक ऐसा प्रवासी अधिनियम बनाया है जो नेटालके अधिनियमसे भी आगे बढ़ जाता है । उसमें उपनिवेशमें बसनेके लिए शिक्षाकी शर्तें इतनी कड़ी लगा दी हैं कि प्रवास अधिकारी अच्छेसे-अच्छे पढ़े-लिखे भारतीयके प्रवेशको भी रोक सकता है । यद्यपि दूसरे प्रकारसे वह इतना उदार भी है कि केप कालोनी या दूसरे किसी दक्षिण आफ्रिकी उपनिवेशमें बसे हुए भारतीयके लिए दरवाजा खुला रखता है। उधर ईस्ट

  1. देखिए खण्ड २, पृष्ठ ३७९-८३ ।
  2. देखिए खण्ड २, पृ४ ३८४-८६ ।
  3. देखिए खण्ड २, पृष्ठ ३८६-८७ ।
  4. देखिए “दक्षिण आफ्रिकाके ब्रिटिश भारतीय, ” अप्रैल १२, १९०३ का सहपत्र |
  5. देखिए "दक्षिण आफ्रिकाके ब्रिटिश भारतीय," अप्रैल २२, तथा “नेटालके भारतीय,” मई १०,१९०२ ।