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दक्षिण आफ्रिकाके ब्रिटिश भारतीय

लंदनकी नगर-परिषदने इस आशयका एक कानून बनाया है कि जो भारतीय शहरी निगम ( कारपोरेशन) की ७५ पौंड कीमतकी जमीनके मालिक नहीं हैं,या इतनी कीमतकी जमीन जिनके कब्जेमें नहीं है, वे सड़कों की पटरियोंपर नहीं चल सकेंगे और उन्हें अपने लिए मुकर्रर बस्तियोंमें ही रहना होगा। दरअसल नगर-परिषद भारतीयोंको दक्षिण आफ्रिकाके आदिवासियोंकी श्रेणीमें डाल देती है ।

अब हालमें ही बनाये गये दो नये उपनिवेशोंमें सम्राट्की सरकारने भी पिछले गणराज्यके बनाये कानूनको, जो कि स्वभावतः बड़ा कठोर है, ज्योंका त्यों कायम रखा है । आजकल उसपर पुनर्विचार हो रहा है और शीघ्र ही उसे पूरी तरहसे संशोधित कर दिया जायेगा ।

किन्तु चूंकि नये अधिकृत प्रदेशोंमें भी सबसे अधिक भार भारतीयोंपर ही पड़नेवाला है, गणराज्यके समय कानूनका सिंहावलोकन कर लेना उचित ही होगा ।

ट्रान्सवालमें भारतीय अपने लिए निश्चित बस्तीसे बाहर कहीं व्यापार नहीं कर सकते और न कहीं बस सकते हैं । और जमीन तो रख ही नहीं सकते। फिर तीन पौंड देकर उन्हें अपना नाम रजिस्टर करवा लेना पड़ता है । वे पटरीपर नहीं चल सकते और रातके ९ बजेके बाद अपने मकानसे बाहर नहीं निकल सकते । ये हैं खास-खास निर्योग्यताएँ । परवाने-वाले कानूनका अमल इतनी सख्तीसे किया जा रहा है कि जितना पहले कभी नहीं किया गया था।

ऑरेंज रिवर उपनिवेशमें तो भारतीयोंका सिवा मजदूरोंकी हैसियतके और किसी हैसियतसे कोई स्थान ही नहीं है ।

केप कालोनी और नेटालके कानून तथा गणराज्यके कानूनमें ध्यान देने लायक खास फर्क यह है कि केप कालोनी और नेटालके कानून सिद्धान्ततः जहाँ सभी देशोंके निवासियोंपर लागू किये जा सकते हैं वहाँ गणराज्यके कानून केवल एशियाके निवासियोंके लिए ही हैं ।

भारतीयोंके खिलाफ लोगोंमें इतना गहरा दुर्भाव भरा हुआ है कि उसने उन्हें ब्रिटिश दक्षिण आफ्रिका अन्य भागोंसे दूर ही रखा है ।

दक्षिण आफ्रिकामें हिन्दुस्तानी सामाजिक और अन्य तमाम दृष्टियोंसे अछूत-से बने हुए हैं; कहीं कम, कहीं ज्यादा । वहाँ उन्हें तिरस्कारपूर्वक "कुली" कहा जाता है । वास्तवमें वहाँके लोग साधारणतया उन्हें "गन्दे जीव" मानते हैं, जिनके अन्दर किसी सद्गुणका लेशमात्र भी नहीं हो सकता । हाँ, यह सही है कि अब यह दुर्भावना नेटालमें काफी कम हो गई है। फिर भी दोनों कौमोंके बीच भेदभाव तो हैं ही। इसका कारण केवल रंगभेद नहीं, शायद यह है कि समस्याकी तरफ देखनेकी दृष्टि प्रत्येक कौमकी अलग-अलग है । किन्तु सबसे अधिक उग्र संघर्ष ट्रान्सवालमें है ।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ४-६-१९०३