कर जब कि ---हम आशा करें--- प्लेग समाप्त हो रहा है, और वह पिछले कई महीनोंमें राजधानीसे बाहर कहीं बढ़ा ही नहीं --- भले ही यह उसकी अच्छी विसंगति हो ---इससे उन तमाम शरणार्थियोंको, जिनका ट्रान्सवालसे सम्बन्ध है, बहुत भारी आर्थिक हानि और असुविधा उठानी पड़ रही है। क्या हम स्थानीय सरकारसे प्रार्थना करें कि वह नेटालके इन कुछ निवासियोंकी --- भले ही वे भारतीय हों --- इस प्रकट अन्यायसे कुछ तो रक्षा करे । एक सच्चा अंग्रेज स्वभावतः न्यायप्रिय होता है। इसलिए हम हर सच्चे अंग्रेजसे पूछते हैं कि क्या यह ऊपर बताया गया एकपक्षीय व्यवहार न्यायका नमूना है ?
इंडियन ओपिनियन, ४-६-१९०३
२४३. देर आयद दुरुस्त आयद
केप टाउनके ब्रिटिश भारतीय संघने ब्रिटिश भारतीयोंकी एक विशाल सभा करके केप कालोनीकी सरकार द्वारा हाल हीमें बनाये गये प्रवासी अधिनियम ( इमिग्रेशन ऐक्ट )[१] और भारतीयोंको बाजारों[२]में रखनेके प्रस्तावित कानूनोंके विरोधमें कुछ प्रस्ताव पास किये हैं । केप कालोनीके कानूनको बदलवानेमें बम्बईका व्यापार-संघ (चेम्बर ऑफ कामर्स) हमारे इन देश-भाइयोंकी जोरदार मदद कर रहा है। यह कानून विधेयकके रूपमें काफी निर्दोष था । इसमें साम्राज्यके प्रजाजनोंकी, बगैर रंगभेदके, रक्षाकी व्यवस्था की गई थी। और शैक्षणिक कसौटीमें भारतीय भाषाओंको भी स्थान दिया गया था । विधेयक अधिवेशनके अन्तमें जाकर पेश किया गया और उसे मंजूर करनेमें भोंडी जल्दबाजी की गई। इस विषयमें तो उसने नेटालको भी मात कर दिया। इसलिए स्वाभाविक था कि उसके तमाम अवस्थाओंसे गुजर जानेके पहले जनता उसके बारेमें कुछ कह ही नहीं सकी । जहाँतक हमारा सवाल है, हम तो समझते हैं कि भारतसे बहुत भारी संख्यामें लोगोंके यहाँ आनेका जरा भी खतरा नहीं है। श्री चेम्बरलेनने एक सिद्धान्त कायम कर दिया है कि स्वशासित उपनिवेशोंको हक है कि वे अपने यहाँ दूसरोंके प्रवेशपर जितना चाहें नियन्त्रण रखें। उस दिन लॉर्ड मिलनरने इस सिद्धान्तको और भी जोर देकर दुहराया था।[३] और अब हमारे देश-भाई भी उसे मानते हैं --- मानना ही पड़ता है । परन्तु इस सिद्धान्तकी कुछ स्पष्ट मर्यादाएँ तो हैं ही। एक तो यह है कि नियन्त्रणका आधार रंगभेद नहीं हो सकता। और दूसरी यह कि समूचे देशपर रोक नहीं लगाई जा सकती। किन्तु केप कालोनीका कानून इन दोनों मर्यादाओंको ताकमें रख देता है । उसमें शैक्षणिक कसोटीकी एक ऐसी शर्त रखी गई है जिसपर शायद विश्वविद्यालयका एक ग्रेजुएट भी खरा न उतरे। उधर इन योग्यताओंमें भारतीय भाषाओंके ज्ञानका
- ↑ १९०२ के अधिनियम ४७ से (शैक्षणिक फसौटीके क्षेत्रसे भारतीय भाषाओंको हटाकर) एशियाइयोंके प्रवेशपर प्रतिबन्ध लगा दिये गये थे। ब्रिटिश भारतीय संघने इस अधिनियमका विरोध करते हुए जून ६, १९०३ को उपनिवेश मन्त्रीकी सेवामें एक प्रार्थनापत्र भेजा था।
- ↑ केप टाउनकी नगर परिषद चाहती थी कि एशियाइयोंको, ट्रान्सवालमें स्वीकृत तरीकोंसे, पृथक कर दिया जाये ।
- ↑ देखिए पृष्ठ ३३० ।