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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सीमावर्ती शहरोंमें भी इनकी जांच नहीं हो रही थी। इसका परिणाम यह हुआ कि कितने ही नये भारतीय उपनिवेशमें आ गये, जिन्हें कि यह ज्ञान ही नहीं था कि इसमें किसी कानूनका भंग हो गया है। उन भारतीयोंका बादमें चालान किया गया और उन्हें उपनिवेश छोड़कर चले जानेके लिए हिदायत कर दी गई। इसलिए ऊपर लिखे अनुसार भारतीय उपनिवेशमें आ गये थे, उससे हमारा यह कथन असत्य नहीं हो जाता कि एशियाई दफ्तर बड़ी सख्तीसे काम कर रहा है।

एशियाई दफ्तरके खुल जानेके कारण अब अगर भारतीय लोग उपनिवेश-सचिवको नामचारके लिए, परन्तु वास्तवमें एशियाई दफ्तरको दरख्वास्त न तो उन्हें अनुमति-पत्र मिल ही नहीं सकते। यूरोपीयोंके लिए यह बन्दिश नहीं है। फिर इस दफ्तरके पर्यवेक्षकों को अनुमति-पत्र मंजूर करनेकी सत्ता भी नहीं है। वे केवल सिफारिश कर सकते हैं। इस सिफारिशके बाद ही अनुमति-पत्र देनेवाले आम दफ्तर समुद्र किनारेके शहरोंमें बैठकर इन सिफारिश पाये हुए नामोंपर अनुमति पत्र मंजूर करते हैं, इसके पहले नहीं। अनुमति-पत्रोंके उम्मीदवारोंको प्रामाणिकताके बारेमें ठीक वही सबूत एशियाई दफ्तरमें पेश करना होता है जो अनुमति पत्रोंके आम दफ्तरोंमें पेश किया जाता है। दोनों दफ्तरोंके बीच फर्क यह है कि समुद्र किनारे आम दफ्तरमें काम करनेवाले अधिकारी अर्जदारको अपनी आँखों देखकर उसके द्वारा पेश किये गये सबूत की प्रामाणिकताकी जांच कर सकते हैं, जब कि एशियाई दफ्तरमें काम करनेवाले अधिकारीको सैकड़ों मील दूर बैठकर अर्जदारके बारेमें अपनी राय बनानी पड़ती है। इस पद्धतिमें लाभ तो कुछ भी नहीं; हाँ, बेकार समय जरूर काफी नष्ट होता है। एक भारतीयको परवाना प्राप्त करनेमें साधारणतः कमसे-कम तीन महीने तो लग ही जाते हैं । कितने ही उदाहरण ऐसे भी मिलेंगे, जिनमें सिफारिश हो जाने और प्रत्यक्ष अनुमति पत्र मिलनेके बीच एक-एक महीना बीत जाता है । इसलिए अगर यह कहा जाये कि भारतीयोंकी भलाई के लिए यह दफ्तर खोला गया है तो, जहाँ तक अनुमति-पत्रोंका प्रश्न है, यह हेतु सफल नहीं हुआ है। उलटे इससे बेहद परेशानी और कानून-सम्बन्धी खर्च बढ़ गया है।

(ख) एशियाई दफ्तरने पास जारी करनेकी एक ऐसी पद्धति शुरू की है जो एकदम निकम्मी साबित हुई है ।

एशियाई दफ्तर भारतीयोंपर अपने मनसे गढ़ी हुई सत्ताके सिवाय कोई सत्ता नहीं रखता । उसने पास देनेकी एक पद्धति बिलकुल मनमाने ढंगसे जारी कर रखी है। जो भी भारतीय इस उपनिवेशमें आता है उसका अनुमति-पत्र उससे छीन लिया जाता है और उसे एक एशियाई पास दे दिया जाता है। इस पासका उपयोग केवल इतना है कि उपनिवेशमें आनेवाले भारतीयका नाम रजिस्टरमें दर्ज हो जाये । परन्तु तथ्य यह है कि उसका नाम तो रजिस्टरमें पहलेसे ही दर्ज होता है । क्योंकि इस दफ्तरकी सिफारिशपर ही तो उसे वह अनुमति पत्र दिया जाता है । फिर अनुमति-पत्र तो स्थायी होते हैं और उनकी मददसे एक आदमी उपनिवेशके भीतर और बाहर भी जब और जितना चाहे आ-जा और घूम सकता है, जब कि एशियाई दफ्तर द्वारा जारी किये गये पास अस्थायी होते हैं और उपनिवेशसे बाहर जाने और वापस लौटनेके काम नहीं आते। इस प्रकार ज्यों ही एक भारतीय उपनिवेशमें प्रवेश करता है इस पद्धतिके कारण अपने आने-जानेकी स्वतंत्रता बहुत कुछ खो देता है । विवेकहीन भारतीयों और यूरोपीयोंकी कमी नहीं है, जो इस पद्धतिका लाभ उठाकर उसका दुरुपयोग करनेकी इच्छा रखते हैं। इसलिए ज्योंही शान्ति-रक्षा कानूनमें संशोधन करनेवाला अध्यादेश मंजूर हुआ, परवाना-विभागके मुख्य सचिवको ये हिदायतें जारी करनी पड़ीं कि एशियाई पास वापस करके उनके