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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

अधिक अच्छी तरह नहीं तो कमसे-कम उतनी ही अच्छी तरह, अधिकृत संख्यामें अनुमति-पत्र जारी कर सकते हैं, और इसी प्रकार यदि यह विश्वास किया जा सकता है कि राजस्व- विभागके अधिकारी ब्रिटिश भारतीयोंको मामूली तौरपर परवाने दे सकते हैं, तो सचमुच एशियाई दफ्तरके लिए फिर कोई काम नहीं रह जाता ।

(च) केप कालोनी और नेटालमें यहाँकी अपेक्षा बहुत अधिक भारतीय हैं । परन्तु वहाँ ऐसा कोई मुहकमा नहीं है ।

इसके अलावा ट्रान्सवालकी अपेक्षा केप कालोनी और नेटालमें भारतीयोंकी आबादी कहीं अधिक है; परन्तु वहाँ ऐसे किसी दफ्तरकी जरूरत नहीं मानी गई। नेटालमें प्रवासी भारतीयोंकी रक्षा के लिए एक दफ्तर अवश्य है । परन्तु उसका सम्बन्ध तो केवल गिरमिटिया मजदूरोंसे है । स्वतन्त्र भारतीयोंपर उसकी कोई सत्ता नहीं है। और शायद इससे भी बड़ी बात यह है कि ट्रान्सवालकी पुरानी हुकूमतको ऐसे दफ्तर की जरूरतका अनुभव कभी नहीं हुआ ।

(छ) एशियाई दफ्तर अन्य दफ्तरोंमें जानेकी जरूरत खत्म नहीं करता ।

परमश्रेष्ठने कहा था कि एशियाई दफ्तरकी जरूरत इसलिए है कि केवल एशियाइयोंका काम करनेवाले अधिकारियोंसे भारतीयोंका सम्पर्क सीधा और आसानीसे हो सके और दूसरे अधिकारियोंके पास आना-जाना खत्म हो सके । परन्तु ऐसा हो नहीं रहा है । वस्तु-स्थिति तो यह है कि एशियाई दफ्तर बीचमें उलटा एक अतिरिक्त बोझ बन गया है। इससे अपने अन्य काम-काजोंके लिए भारतीयोंकी दूसरे दफ्तरोंमें आने-जाने की आवश्यकता खत्म नहीं हुई है।

इस प्रकार मेरी समिति आशा करती है कि वह परमश्रेष्ठको यह विश्वास दिला सकी है कि हर प्रकारसे यह दफ्तर अनावश्यक है । वास्तवमें जब इसकी स्थापना हुई तब उद्देश्य यही था कि यह एक अस्थायी संस्था होगी, और अनुमति-पत्र की प्रथा समाप्त हो जानेपर इसकी कोई जरूरत नहीं रहेगी ।

२. बाजारोंवाली सूचना

सूचना ३५६ सन् १९०३ का, जिसमें बाजारोंके सिद्धान्त बताये गये हैं, जो उदार अर्थ लगाया गया है उसके लिए संघ कृतज्ञता प्रकट करता है । परन्तु आदरपूर्वक निवेदन है कि इस सूचना पर दो कारणोंसे आपत्ति की जा सकती है :

(१) कि उसका अभिप्राय भारतीयोंको अनिवार्य रूपसे पृथक करना और उनके व्यापारको केवल बाजारोंमें सीमित करना है ।

(२) कि उसके अमलसे भारी कठिनाइयाँ पैदा होंगी ।

पहली बातके विषयमें संघका नम्र निवेदन है कि यदि उद्देश्य स्वाधीनताको सीमित करना है, तो किसी भी तरह की अनिवार्यता न्यायके विरुद्ध पड़ती है। अकसर कहा गया है कि भारतीयोंको बाजारोंका विरोध नहीं करना चाहिए, क्योंकि भारतमें उन्हें बाजारोंकी आदत रही है। इसपर संघ परमश्रेष्ठसे निवेदन करना चाहता है कि भारतके बाजार शहरके बिलकुल बीचोंबीच उसके सबसे व्यस्त हिस्सेमें होते हैं और फिर बाजारमें व्यापार करना किसीके लिए अनिवार्य नहीं है । कहना जरूरी नहीं कि भारतीय बाजार निवासके स्थान नहीं होते। असलमें जिस किसी स्थानमें व्यापार-व्यवसाय होता है उसीको बाजार कहा जाता है और वह किसी वर्ग विशेषतक सीमित नहीं होता। इस सूचनामें तो महज पृथक् बस्तियोंको बाजारका मीठा नाम दिया गया है। यहाँ व्यापार ही नहीं करना पड़ेगा, रहना भी पड़ेगा | सरकारने भी बाजारको