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प्रार्थनापत्र : ट्रान्सवालके गवर्नरको

कोई महत्त्वकी या इज्जतदार जगह नहीं माना है यह इसीसे स्पष्ट है कि लड़ाईके पहलेसे व्यापार करनेवाले भारतीय वहाँ जानेके लिए मजबूर नहीं किये जायेंगे। इसी प्रकार सुशिक्षित और प्रतिष्ठित भारतीयोंपर भी वहाँ रहनेकी पाबन्दी नहीं है । फिर ट्रान्सवालके बाजार भारतके सही बाजार जिस प्रकार शहरके बीचमें होते हैं वैसे नहीं होंगे। संघको यह कहनेके लिए माफ किया जाये कि ये बाजार शहरकी सीमाके अन्दर होंगे, इसका मतलब यह नहीं है कि वर्तमान कानून मुलायमियतके साथ बरता गया है; क्योंकि कानूनका मंशा साफ है कि मुहल्लों और सड़कोंको अलग किया जाये, और ये तो शहरोंमें ही होंगे। फिर कानूनमें तो लिखा है कि ये सड़कें, मुहल्ले और बस्तियाँ केवल रहनेके लिए होंगी । उसमें व्यापारका कहीं उल्लेख नहीं है । इसलिए संघका मत है कि भारतीय व्यापारको बाजारोंतक सीमित करनेका अर्थ कानूनको मरोड़ कर निकाला गया है। हमें मालूम है कि भूतपूर्व गणराज्यके उच्च न्यायालयने अपने निर्णयमें कहा था कि कानूनकी व्याख्या करनेमें 'निवास' के साथ 'व्यापार' का भी समावेश समझा जायेगा । परन्तु यह फैसला सर्वसम्मत नहीं था । न्यायमूर्ति श्री मॉरिसने इसके विरोधमें अपना मत दिया था। इसलिए उस फैसले पर अमल करना कानूनका उदार अर्थ करना नहीं है--- इसे देखते हुए कि उसपर विरोधी मत दिया गया था और ब्रिटिश सरकारने कानूनको स्वीकार करनेकी लाचारीके बावजूद इस अर्थके प्रति सदा अपना विरोध प्रकट किया है।

परमश्रेष्ठने यह भी कहा था कि नया विधान विचाराधीन है। यदि ऐसा है तो संघ समझ नहीं पाता कि अभी इस कानूनको लागू करनेकी क्या आवश्यकता है? यों भी बहुत कम भारतीयोंको उपनिवेशमें आने दिया जा रहा है। जो लड़ाईके पहले व्यापार करते थे उन्हें फिरसे बस्तियोंसे बाहर व्यापार करनेका अधिकार दिया जानेवाला है । तब नये कानूनके बननेतक नये अर्जदारोंके साथ सरकार जैसा उचित समझे करे ।

बाजारोंको शहरकी सीमामें रखनेका श्वेत संघ (व्हाइट लीग)ने कड़ा विरोध किया है। अगर भारतीयोंको आम तौरपर शहरोंमें व्यापार करनेके परवाने देना गलत है, तो शहरको कुछ हिस्सोंमें, भले ही उनका नाम बाजार हो, व्यापार करने देना भी उतना ही गलत होगा । इसलिए हमारे संघको भय है कि सरकारके इच्छानुसार यदि बाजार शहरके सुगम्य हिस्सोंमें बसाये गये तो भी भारतीय-विरोधी हलचल होती रहेगी ।

इसलिए संघका निवेदन है कि किसी भी दृष्टिसे विचार किया जाये, बाजारका सिद्धान्त असन्तोषजनक है ।

यद्यपि हम यह नहीं मानते कि भारतीय व्यापारी बहुत ज्यादा व्यापार हथिया लेंगे, फिर भी उत्तम उपाय यह है कि व्यापारके नये परवाने देनेपर नियन्त्रणका अधिकार नगरपालिकाओंको दे दिया जाये और उनके निर्णयोंपर पुनर्विचार करनेका अधिकार सर्वोच्च न्यायालयको हो । इस प्रकार जबतक सफाई, व्यवस्थित हिसाब आदि रखनेके कानूनका पालन किया जाता है, तबतक वर्तमान परवानोंमें कोई हेर-फेर नहीं किया जायेगा । और जहाँतक नये परवाने देनेका सवाल है, चाहे यूरोपीयोंको, चाहे भारतीयोंको, इसका निर्णय नगरपालिकाके हाथोंमें होगा, जो जनताको इच्छाका प्रतिनिधित्व करती है। इस तरहके प्रतिस्पर्धा रहित कानूनका स्वाभाविक परिणाम यह होगा कि प्रत्येक कौम अपने आप अलग-अलग मुहल्लोंमें बँट जायेगी । मकान साल-ब-साल बेहतर किये जा सकेंगे, कीमका सारा रहन-सहन ऊँचा किया जा सकेगा, और सो भी उसके किसी वर्गका जी दुखाये बिना । हमारा यह दृढ़ विश्वास है कि अगर शहरका कोई अच्छा हिस्सा चुनकर भारतीयोंको वहाँ जाने न जानेकी अनुकूलता कर दी जाये तो बगैर किसी जबरदस्तीके बहुत-से लोग प्रसन्नतापूर्वक इस अवसरका लाभ उठायेंगे ।