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प्रार्थनापत्र : ट्रान्सवाल्के गवर्नरको

वह भले ही अवकाश ले सकता है, त्यों ही सच्चे श्रमका परिणत फल उसके मुँहसे छीन लिया जाता है । वह अपने कारोबारको बेच नहीं सकता। अपने चलते हुए व्यापारका परवाना वह दूसरेके नामपर नहीं करवा सकता । संघको यह बताने की जरूरत नहीं है कि व्यापारीसे इस मामूली अधिकारके छिन जानेका अर्थ उसके लिए क्या होता है। इसलिए अगर यह बात सही है कि निहित स्वार्थोंकी रक्षा होगी, तो संघकी राय है कि, परवाने दूसरेके नामपर करवानेका अधिकार कायम रहना चाहिए । श्री विलियम हॉस्केन और दूसरे प्रतिष्ठित यूरोपीय सज्जनोंने भी इस माँग का समर्थन किया है। इस सूचनापर उन्होंने परमश्रेष्ठकी सेवामें एक प्रार्थनापत्र[१] भेजा है। उसकी नकल हम साथमें पेश कर रहे हैं। आगे विस्तारसे उसका उल्लेख आया है ।

(३) उसमें यह साफ नहीं बताया गया है कि किन्हें अपने परवाने नये करवाने हैं - बाजारोंके बाहर व्यापार करनेके परवाने जिनके पास थे, केवल उन्हींको या उन सबको, जो युद्धके पहले बाजारोंके बाहर व्यापार करते थे चाहे उनके पास परवाने रहे हों या नहीं ।

यह मुद्दा महत्त्वपूर्ण है । ऐसे बहुतसे भारतीय थे जो लड़ाईके पहले व्यापार तो करते थे, परन्तु उनके नाम परवाने जारी नहीं हुए थे। बहुत कमके पास परवाने थे । बहुतसे परवानेकी रकम दे देंगे इस वचनपर, और कुछ गोरोंके नामसे, व्यापार करते थे । और यह सब था, अधिकारियोंकी जानकारीमें । इसे बर्दाश्त कर लेनेका कारण था, ब्रिटिश हुकूमतका दबाव । अब, सूचनाके प्रारम्भमें कहा गया है : "लड़ाईके प्रारम्भमें जो एशियाई बाजारोंसे बाहर व्यापार करते थे उनके हितोंका उचित ध्यान रखते हुए।" परन्तु तीसरी उपधारामें उन एशियाई व्यापारियोंका जिक्र है, "जिनके पास लड़ाईके प्रारम्भमें परवाने थे आदि ।" इससे प्रकट है कि लड़ाईके पहले जो "'व्यापार करते थे" के बजाय "परवाने रखते थे" की हदबन्दी कर दी गई तो बहुतसे भारतीयोंका नुकसान हो जायेगा ।

(४) यह भी साफ नहीं है कि जो पेढ़ी लड़ाईसे पहले बाजारोंके बाहर व्यापार कर रही थी उसके सभी साझेदारोंको नये परवाने मिल सकते हैं या किसी एकको ।

सूचनामें इस मुद्देपर फेर-बदलकी गुंजाइश रखी गई है। यदि पहले आनेवाले साझेदारको परवाना दे दिया गया और बादमें आनेवाले या आनेवालोंको इनकार कर दिया गया तो यह सरासर अन्याय होगा । लड़ाईके पहले वे सब व्यापार करते थे । अगर फिरसे परवाना दिया जाता है तो उसपर सबका समान अधिकार होगा ।

(५) उसमें छूट केवल निवासकी है ।

भारतीयोंके लिए छूटका यह सारा सिद्धान्त ही बड़ा दुःखदायी है। समझमें नहीं आता कि ब्रिटिश राज्यमें चाहे जहाँ बसनेकी भारतीयको 'छूट' लेने और इस तरह अपने दूसरे देशवासियोंसे बड़ा दिखनेकी जरूरत क्यों पड़नी चाहिए। दलीलके लिए ऐसे घृणित ( इस शब्द के लिए संघको क्षमा किया जाये ) सिद्धान्तको मंजूर भी कर लिया जाये तो भी छूट तो केवल निवासकी ही होगी । परमश्रेष्ठ तो सोच रहे थे कि यह छूट निवास और व्यापार दोनोंके लिए होगी। किन्तु सूचना स्पष्ट रूपसे उसे निवासतक ही सीमित करती है। सन् १८८५ के समूचे कानून ३से छूटकी बात होती तो भी उसका कोई मूल्य होता ।

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  1. यह यहाँ नहीं दिया गया है; देखिए पृष्ठ ३१९-२० ।