पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 3.pdf/३९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३५४
सम्पूर्ण गांधी वाङमय

किन्तु हमारा संघ इसपर बहुत नहीं कहना चाहता । उसका तो पूरी सूचनासे आदरसहित विरोध है । हमारी रायमें यह सूचना स्वर्गीयां महारानीकी सरकारकी घोषणाके विपरीत है, जो नया कानून बनने जा रहा है उसे ध्यानमें रखते हुए अनावश्यक है, अस्पष्टताओंसे भरी पड़ी है, और भारतीयोंको उसी अनिश्चयकी अवस्थामें डाले हुए है जिसमें वे १५ वर्षोंसे पड़े हैं। ब्रिटिश हुकूमतकी स्थापनाके बाद उसे इससे छुटकारा पानेका अधिकार था। भले ही यह खर्चीली लड़ाई ब्रिटिश सरकारने मुख्यतः यूरोपीयोंकी शिकायतें दूर करनेके लिए लड़ी थी, फिर भी उसमें भारतीयोंकी शिकायतोंको दूर करनेका ध्यान भी काफी था।

बस्तियोंके बाहर जमीन-जायदाद रखने की मनाही ।

सन् १८८५ का कानून ३ कहता है कि भारतीय निश्चित सड़कों, मुहल्लों और बस्तियोंसे बाहर उपनिवेशमें कहीं भी जमीन-जायदाद नहीं रख सकेंगे। संघ आदरपूर्वक मानता है कि यह प्रतिबंध राजभक्त ब्रिटिश भारतीयोंके लिए बड़ी भारी मुसीबतकी और नुकसानदेह चीज है । यह समझना बहुत ही कठिन है कि एक ब्रिटिश-प्रजाजन ब्रिटिशों द्वारा शासित भू-भागमें, जहाँ-कहीं भी वह चाहे, जमीन क्यों नहीं खरीद सकता ? हम आशा करते हैं कि अभी जो नया कानून बनाने का विचार हो रहा है उसमेंसे यह मुमानियत हटा दी जायेगी। इसलिए हम इस विषयमें अधिक कुछ कहना उचित नहीं समझते ।

परमश्रेष्ठने कहा था कि हर राज्यको यह निर्णय करनेका अधिकार है कि वह किसे अपना नागरिक बनाये और किसे नहीं बनाये । इस सिद्धान्तको हमने स्वीकार किया है, और अब भी स्वीकार करते हैं । परन्तु इस विषयमें संघका यह खयाल है कि इस उपनिवेशमें बहुत अधिक संख्यामें एशियाइयोंके घुस आनेका भय नहीं है। दक्षिण आफ्रिकाके समुद्र-तटवर्ती उपनिवेशोंमें पहले ही से बहुत कड़े कानून हैं। इसके अलावा भारतीय स्वभावतः अपना देश छोड़कर कहीं बाहर जाकर बसना पसन्द नहीं करते । ये दोनों बातें जरूरतसे ज्यादा भारतीयोंका आना रोकनेके लिए काफी हैं । परन्तु यूरोपीय उपनिवेशी ऐसा नहीं मानते । दबाव डालनेवाले कानून बनानेके पीछे यही बड़ी संख्याके आनेका भय है। इसलिए नये प्रवेशको नियन्त्रित करनेवाले किसी भी कानूनको बगैर किसी विरोधके हम स्वीकार कर लेंगे, बशर्ते कि वह सब पर एक-सा लागू हो, उसमें रंगका भेदभाव न हो और प्रतिष्ठित वर्गके भारतीयोंके तथा जो भारतीय यहाँ पहलेसे ही बस गये हैं उनके व्यापारमें मददके लिए अन्य भारतीयोंके आनेको उपनिवेशके द्वार खुले रखे जायें।

यहाँ जिस प्रार्थनापत्रका उल्लेख हो चुका है उसमें श्री विलियम हॉस्केन और उनके कुछ साथियोंने परमश्रेष्ठको सुझाया है कि नेटाल अथवा केप कालोनीके प्रवासी प्रतिबन्धक अधिनियम ( इमिग्रेशन रिस्ट्रिक्शन ऐक्ट) को कुछ फेर-फारके साथ मंजूर कर लिया जाये। इन सज्जनों द्वारा सुझाये हलको हम प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर सकते हैं, बशर्ते कि शैक्षणिक कसौटीमें प्रधान भारतीय भाषाएँ भी शामिल कर ली जायें और वह कानून अपने अधिकारियोंको यह सत्ता भी दे दे कि वह स्थानीय भारतीय व्यापारियोंके लिए आवश्यक नौकर, व्यवस्थापक आदिका भी प्रवेश---भले ही वह एक निश्चित अवधिके लिए हो --- विशेष रूपसे मंजूर कर दिया करे ।