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२५०. दक्षिण आफ्रिकाके ब्रिटिश भारतीय

( ट्रान्सवाल )

पिछले अंकमें हमने सरसरी तौरपर देखा था कि ब्रिटिश भारतीयोंपर दक्षिण आफ्रिकामें क्या-क्या कानूनी निर्योग्यताएँ थोपी गयी हैं। पाठकोंको स्मरण होगा कि ट्रान्सवालमें संघर्षका रूप गहरा है; उसपर जरा अधिक ध्यान देना होगा। प्रतिबन्ध खिजानेवाले हैं; और इन कठिनाइयों को बढ़ानेवाली बात है एशियाई मुहकमेके अधिकारियोंका विरोधी रुख ।

बोअर-हुकूमतके दिनोंमें कानून बड़े सख्त थे । परन्तु उनका अमल सौम्यसे सौम्य था । उस समय कानूनको अमलमें लानेवाले अफसरोंके दिलमें वह दुर्भाव नहीं था, जिसके कारण वे कानून बने थे । हुकूमत हिन्दुस्तानी व्यापारियोंको ट्रान्सवालसे निकाल बाहर करनेके लिए जरूरतसे ज्यादा चिन्तित नहीं थी, क्योंकि पृथक् बस्तियोंमें खुद बोअर लोग बहुत बड़ी संख्यामें उनके ग्राहक थे; और अगर वह इस विषयमें कभी थोड़ी-बहुत हलचल करती तो ब्रिटिश एजेंट तुरन्त हिन्दुस्तानियोंकी रक्षाके लिए अपना हाथ बढ़ा दिया करता था । हम तत्कालीन उपराजप्रतिनिधि श्री एमरी इवान्सकी याद कृतज्ञतासे किये बिना नहीं रह सकते; क्योंकि जब उन्होंने सुना कि ब्रिटिश भारतीयोंको सूचनाएँ मिली हैं कि वे बस्तियोंमें चले जायें तो उन्होंने लगभग ऐसा कहा : "आप इस सूचनापर ध्यान न दें। अगर आपके साथ कोई जोर-जबरदस्ती हुई तो मैं आपकी रक्षा करूँगा ।" इसलिए, यद्यपि उस समय भी हम एकदम निश्चिन्त नहीं थे, फिर भी भारतीय ट्रान्सवालमें लगभग बिना कष्टके व्यापार करते थे। बहुतसे परवानेकी रकम अदा करनेके वादेके बलपर, और दूसरे यूरोपीयोंके नामपर व्यापार करते थे; और यह खुले आम होता था । सरकार यह सब जानती थी । किन्तु इसकी उपेक्षा करती थी। पैदल-पटरियों-सम्बन्धी उपनियमोंपर सख्तीसे अमल करनेके प्रयत्नका ब्रिटेनके तत्कालीन उच्चायुक्त (हाई कमिश्नर )ने जोरदार विरोध किया था; और डॉक्टर लीड्सको ऐसे किसी प्रयत्नकी जानकारीसे इनकार करना ही सुविधाजनक हुआ, और उन्होंने सम्राज्ञी सरकारको आश्वासन दिया कि बोअर सरकारका इरादा ऐसे किसी उपनियमका अमल एशियाइयोंके खिलाफ करनेका नहीं है । और, उपनिवेशमें आनेपर तो किसी प्रकारकी रोक थी ही नहीं ।

परन्तु अब स्थिति एकदम बदल गई है। अब न तो ढिलाई या नरमी है, न टाल जानेकी वृत्ति । कुछ अधिकारियोंको पिछली नरमीका अफसोस हो रहा है। क्योंकि, इसके कारण अब कानूनोंपर सख्तीसे अमल करनेमें उन्हें असुविधा होती है। उनके कामोंके खिलाफ कोई जोरदार आवाज नहीं उठाई जाती । फलस्वरूप न्याय मिलना असम्भव हो गया है --- यदि हमारे देशवासी श्रीमान लेफ्टिनेंट गवर्नरके सामने न पहुँचें जो, हम जानते हैं, न्यायप्रिय हैं। जब अंग्रेज सरकारने यहाँ सत्ताके सूत्र अपने हाथमें लिये तब नई सरकारकी नीति नये कानून बननेतक युद्धके पहले यहाँ भारतीयोंकी जो स्थिति थी उसीका रक्षण करनेकी थी। कुछ शरणार्थी भाग्यसे शुरूके कुछ महीनोंमें उपनिवेशमें पहुँच गये थे । इसलिए उनमेंसे ज्यादातर लोगोंको शहरोंमें व्यापार करनेके परवाने मिल गये । किन्तु अब उस नीतिकी जगह सख्ती शुरू हो गई है। कोई भारतीय अपना परवाना दूसरे व्यक्तिके नाम नहीं बदलवा सकता। इसलिए वह अपने व्यापारको चलती हालतमें दूसरेके हाथों नहीं बेच सकता । बोअर-हुकूमतमें यह कठिनाई नहीं थी । उपनिवेशमें कहीं-कहीं अधिकारियों द्वारा पैदल- पटरियोंके कानूनको अमलमें लानेके प्रयत्न भी शुरू हो गये हैं ।