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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

बाघ गरज कर कहता है, "तेरी इतनी मजाल कि तू ऐसे महल बनाये और हमारे हलकेमें दखल जमाये । तब तो बेशक तेरी शामत आ गई है ।" प्रस्तावित एशियाई बाजारोंके विषयमें डर्बनके मेयर महोदयने जो विवरण पेश किया है उसका सारांश ऐसा ही कुछ है। एक प्रसिद्ध विज्ञापन-चित्रके गंगालमें बैठे हुए लड़के की तरह यूरोपीय तबतक नहीं मान सकते जबतक वे कामयाबी नहीं पा जाते, यानी स्वतंत्र भारतीयोंका विनाश नहीं हो जाता।

यह बात कि पिछले कुछ वर्षोंमें कुछ हिन्दुस्तानियोंने अच्छी कमाई की, उन्होंने जमीनें खरीदीं और खासी अच्छी इमारतें भी बना लीं, जिसके कारण हजारों पौंडकी रकम यूरोपीयोंकी जेबोंमें भी पहुँची, यूरोपीयोंको बर्दाश्त नहीं है । परन्तु श्री एलिस ब्राउन[१] जैसे समझदार, देशभक्त और न्यायप्रिय सज्जनसे हमने बेहतर बातोंकी उम्मीदकी थी। हम कहना चाहते हैं कि अलग बस्तियोंवाले उनके प्रस्तावमें न तो समझदारी है और न देशभक्ति । और जिस प्रकार उन्होंने इसका समर्थन किया है वह भी न्यायोचित नहीं है। प्रस्तावमें समझदारी इसलिए नहीं है कि जहाँ उसका जन्म हुआ है, वहीं वह अभी पक्का नहीं हुआ है । वहाँ उसपर पुनर्विचार हो रहा है । देशभक्ति उसमें इस कारण नहीं है कि अन्य ब्रिटिश प्रजाजन उसके बारेमें क्या विचार रखते हैं यह जाने बगैर प्रस्ताव पेश कर दिया गया है । और जिस प्रकार उसका समर्थन किया गया है उसके बारेमें तो कुछ न कहना ही भला है । एक नगर निगमके प्रधानको हैसियतका गृहस्थ यदि ऐसी बातें कहे, जो तथ्यके प्रकाशमें झूठ साबित हों, तो यह बड़े दुःखका विषय है। हम तो यही आशा कर सकते हैं कि लॉर्ड मिलनरकी हुकूमतके प्रभावमें, आजकी भाग-दौड़के कारण विषयको सोचने-समझनेके अवकाशके अभावमें भारतीयोंके साथ यह सारा अन्याय अनजाने ही हो रहा है।

क्योंकि राह चलता आदमी भी अगर आँखें खोलकर देखना चाहे तो तुरन्त जान सकता है कि एशियाइयोंके विरोधकी दृष्टिसे प्रवासी प्रतिबन्धक अधिनियम बेकार साबित नहीं हुआ है । और भारतीय कौम कानूनके अन्तर्गत परवाने और प्रमाण-पत्र जारी करनेकी पद्धति और मुसाफिरोंको लानेवाले जहाजोंपर होनेवाली पुलिसकी जाँचके कष्टसे कराह रही है । हम पाठकोंसे अनुरोध करते हैं कि वे प्रवासी प्रतिबन्धक अधिकारीकी ताजा रिपोर्ट पढ़ जायें । विक्रेता परवाना अधिनियमके बारेमें बात यह है कि भारतीयोंके परवानोंमें विशेष वृद्धि होना तबतक असम्भव है जबतक मेयर साहब उपनिवेशके नगराधिकारियोंपर अपना काम ईमान- दारीसे न करनेका आरोप न लगायें; क्योंकि सारे व्यापारियोंकी गर्दन इन अधिकारियोंके हाथोंमें ही है। हम कहते हैं कि आँकड़े प्रकाशित कीजिए ।

एशियावासियोंके खिलाफ पुनः इतना द्वेष-भाव बढ़ने का एक जबरदस्त कारण यह है कि भारतसे अबतक बड़ी संख्यामें शर्तबन्द कुली बराबर लाये जा रहे हैं। इसके लिए प्रवासी-न्यास-निकाय (इमिग्रेशन ट्रस्ट बोर्ड)के पास जो दरखास्तें आ रही हैं, वह उनको निपटानेमें असमर्थ है । किन्तु फिर भी उपनिवेशका शासन यह पाप करता जा रहा है और साथ ही उसके परिणामोंसे बचनेकी आशा करता है। हम जितनी तीव्रतासे कह सकते हैं उतनी तीव्रताके साथ शासनसे अनुरोध करते हैं कि नये मजदूरोंको लाना बन्द करो; आप देखेंगे कि इससे जैसे-जैसे समय बीतेगा उपनिवेशमें भारतीयोंकी काफी संख्या अपने आप घटती चली जायेगी। तब यह बात साफ हो जायेगी कि उपनिवेशको ऐसे मजदूरोंकी सचमुच जरूरत है भी या नहीं। अगर जरूरत नहीं है तो बहुत अच्छा है । किन्तु अगर जरूरत है तो भारतीयोंके बारेमें उपनिवेशने छोटी-छोटी बातों में

  1. डर्बनके मेयर ।