पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 3.pdf/४०६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३६४
सम्पूर्ण गांधी वाङमय

मिला है। उपनिवेशकी सरकारका कहना है कि वर्तमान कानूनके अनुसार वह उन्हें उपनिवेशमें अपना व्यापार फिरसे शुरू करनेकी इजाजत नहीं दे सकती । जब पूछा गया कि इस कानूनमें कब सुधार होगा या वह कब रद किया जायेगा, तो जवाब मिला कि उसे पता नहीं है । इसलिए या तो यह प्रदेश ब्रिटिश सरकारके अधिकार क्षेत्रसे बाहर है या वह इस कानूनको सुधारना या रद करना नहीं चाहती। उसने उपनिवेशके बहुतसे कानूनोंको रद कर दिया है या बदल दिया है; परन्तु इसको नहीं ।

जब अंग्रेजोंने शुरू-शुरूमें इस उपनिवेशपर अधिकार किया तब कहा गया था कि जबतक मुल्की शासन स्थापित नहीं हो जाता तबतक यह कानून सुधारा भी नहीं जा सकता । जब फौजी शासन हटा और मुल्की हुकूमत कायम हुई तब श्री चेम्बरलेनके आगमन की राह देखी जाने लगी। श्री चेम्बरलेन आकर चले भी गये। फिर भी कुछ नहीं हुआ --- क्यों ?

लड़ाईसे पहले हर कोई इस बातसे सहमत था कि लड़ाई खत्म हो जानेपर दोनों गणराज्योंमें तमाम ब्रिटिश प्रजाजन स्वतन्त्र हो जायेंगे। क्या हम हर सच्चे अंग्रेजसे इस बारेमें अपील नहीं कर सकते और पूछ नहीं सकते कि उसे यह कानून पसन्द है या नहीं ?

भारतीय नहीं चाहते कि वे उस या अन्य किसी उपनिवेशमें भर जायें । परन्तु चूंकि वे साम्राज्यके वफादार प्रजाजन हैं, इसलिए यह माँग करनेके लिए अपने आपको पूर्णतः हकदार मानते हैं कि यहाँ कानून ब्रिटिशोंकी न्याय और औचित्यकी भावनाके अनुरूप होने चाहिए । भारतमें प्राथमिक शालाकी चौथी कक्षामें पहुँचनेसे पहले प्रत्येक बच्चेको यह गायन सिखाया जाता है कि अंग्रेजी हुकूमतमें कहीं विषमता नहीं है। शेर मेमनेको चोट नहीं पहुँचा सकता । सब स्वतन्त्र और सुरक्षित हैं। ऐसी भावनाओंके बीच पाले जानेके कारण हमें इस उपमहाद्वीपमें उस शक्तिशाली सरकारका प्रत्यक्ष व्यवहार समझनेमें कठिनाई होती है। ब्रिटिश दक्षिण आफ्रिकामें तो यूरोपीय शेर हिन्दुस्तानी मेमनेको समूचा निगल जाना चाहता है और ब्रिटिश सरकारके कार्यालय ( डाउनिंग स्ट्रीट) का कर्ता-धर्ता तमाशा ही देख रहा है।

[अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १८-६-१९०३


२५५. साम्राज्य-भाव या मनमानी ?

ट्रान्सवालकी नवनिर्मित विधान-परिषदमें नगरपालिकाओंके चुनाव सम्बन्धी कानूनपर जो बहस हुई है वह अगर दुःखजनक न होती तो बड़ी मनोरंजक होती। समझमें नहीं आता कि परिषदके गैर-सरकारी सदस्योंने कैसे यह मान लिया और उस धारणाके आधारपर बहस भी की कि तमाम रंगदार जातियोंको -- चाहे वे ब्रिटिश प्रजाजन हों या गैर-प्रजाजन हों --- नगरपालिकाओंमें मताधिकारसे वंचित रखना पूरी तरहसे न्याय्य है। सचमुच, अगर हमें यह मालूम नहीं होता कि सर जॉर्ज फेरार[१]ने सरकारी प्रस्तावके खिलाफ अपनी राय दी है, तो हम तो यही मानते रहते कि वे रंगदार ब्रिटिश प्रजाजनोंके वाजिब अधिकारोंके हिमायती हैं। क्योंकि हमने पढ़ा था कि सर जॉर्ज फेरारने श्री हैरी सॉलोमनको उनकी कुलॉटके लिए बड़ा उलाहना दिया था । वास्तवमें लड़ाईके पहले वे हमेशा ही रंगदार जातियोंके साथ

  1. ट्रान्सवालकी विधान परिषदके एक नामजद सदस्य ।