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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

नहीं दिखाई देता कि कुछ वर्ष बाद यह कानून रद नहीं हो जायेगा और रंगदार जातियोंको मताधिकार नहीं दे दिया जायेगा। शायद सरकारपर इस दलीलका असर पड़ा हो। परन्तु अब तो हम इस नतीजेपर पहुँच गये हैं कि ये सारे वादे झूठे हैं। हम नहीं मानते कि स्वराज्य की स्थापना हो जानेपर रंगदार जातियोंके विरुद्ध जमा हुआ दुर्भाव कलमकी एक रगड़से मिटा दिया जायेगा। इसके विपरीत, रंगदार जातियोंके ऊपर यह नियन्त्रण कायम रखनेके पक्षमें सरकारके इस कदमका हवाला देकर यह कहा जायेगा कि संक्रमण कालकी सरकारने भी ऐसे कानूनको रखना उचित समझा था। और तबतक सरकारके हाथों वर्षोंतक इतना पोषण मिलनेपर यह दुर्भाव इतना दृढ़ और पुष्ट हो जायेगा कि उसे मिटाना असम्भव होगा ।

परन्तु इस काली घटामें भी कुछ उजली रेखाएँ तो हैं ही । यद्यपि यह अरण्यरोदन ही था, तथापि श्री विलियम हॉस्केन[१] ने, जो एकमात्र गैर-सरकारी सदस्य थे, बड़े साहस और निर्भयताके साथ न्याय और मानवताके पक्षमें अपनी आवाज उठाई। गैर-सरकारी सदस्योंके दिलोंमें रंगदार जातियोंके प्रति कोई आदर नहीं था । उन्हें क्या परवाह थी कि इस अन्याय-भरे कानूनसे उनके दिलोंको कितनी गहरी चोट पहुँच रही है । सरकारने भी गोरोंको खुश करनेके लिए उन गरीबोंके उचित अधिकारोंका गला घोंट दिया। परन्तु अकेले एक श्री हॉस्केन थे, जिन्होंने अपने कामसे प्रत्यक्ष बता दिया कि वे ऐसी किसी बातमें सहयोग देनेवाले नहीं हैं ।

हम माननीय सदस्योंको एक बातकी याद जरूर दिला दें। ब्रिटिश भारतके निवासियोंको म्यूनिसिपल शासनका अनुभव युगोंसे रहा है। सर हेनरी मेन और स्वर्गीय श्री विलियम विल्सन हंटर --- भारतके शासकीय इतिहासकार --- और अनेक योग्य लेखक इसकी साक्षी देते हैं। उन्होंने कहा है कि ऐंग्लो-सैक्सन जातिके कहीं पहलेसे भारत म्यूनिसिपल स्वायत्त शासनका उपभोग करता रहा है। और यद्यपि हम कबूल करते हैं कि यह महान जाति अब प्रगतिकी दौड़में भारतसे आगे बढ़ गई है, फिर भी हम आशा करते हैं कि माननीय सदस्य यह खयाल तो नहीं करेंगे कि स्वायत्त शासनकी सहजबुद्धि इस कदर हमें छोड़कर चली गई है कि --- अब हम ट्रान्सवालमें म्यूनिसिपल मताधिकारके भी लायक नहीं रहे।

श्री चेम्बरलेन दक्षिण आफ्रिकामें साम्राज्यकी एकताका सन्देश लेकर आये । वाँडरर्सहालको उस सभाको हम भूले नहीं हैं, जब श्री चेम्बरलेनके प्रत्येक वाक्यपर तालियाँ बजती थीं। संकीर्ण जातिगत भावनाके स्थानपर सारा वातावरण साम्राज्यकी एकताकी भावनासे ओत-प्रोत था । तब क्या कुछ लोगोंके दुर्भावके वशीभूत होकर सम्राटके लाखों प्रजाजनों को कलंकित करना साम्राज्य-भावना है ? या, जैसा कि हमने शीर्षकमें प्रश्न किया है, यह मनमानी है ?

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १८-६-१९०३
  1. ट्रान्सवाल यूरोपीय संघके अध्यक्ष।