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२६५. पत्र : हरिदास वखतचन्द वोराको[१]

कोर्ट चेम्बर्स
रिसिक स्ट्रीट
पो० ऑ० बॉक्स ६५२२
जोहानिसबर्ग
जून ३०, १९०३

प्रिय हरिदासभाई,

आपके दो पत्र मिले। बड़ी खुशी हुई कि अब हरिलाल खतरेसे बाहर हो गया है। आप जानते हैं, मैंने तार[२] दिया था कि छगनलालके साथ उसे यहाँ भेज दें। आशा है वह रवाना कर दिया जायेगा । वह जब यहाँ पहुँचेगा तबतक जाड़ा बीत जायेगा । अभी कुछ दिनों वह स्कूल नहीं जा सकेगा इसलिए शायद हवा-पानीके बदलाव और बँधी दिनचर्यासे उसे कुछ ज्यादा फायदा हो जाये । और यहाँ उसे आपके मनके मुताबिक अधिक प्राकृतिक ढंगसे भी रखा जा सकेगा । मैं ध्यान रखूंगा कि जहाँतक बने उसे दवाएँ न दी जायें।

भारतके मित्रोंकी, इस अपने आप ओढ़े हुए देश-निकालेके दिनोंमें मुझपर बड़ी कृपा रही है। उसके लिए मैं बहुत आभारी हूँ । मुझे मालूम है, आपने और रेवाशंकरभाईने हरिलालके तईं मेरी कमी पूरी कर रखी है। उसकी ज्यादा चर्चा मैं नहीं करना चाहता । मैं यह सोचता हूँ कि यदि वह यहाँ होता तो मैं उसकी देख-रेख कर सकता। इसका मुझे दुःख है कि उसके कारण आप दोनोंको चिंता और परेशानी हुई।

आप अपने मुकदमे-मामलोंमें जरूरतसे ज्यादा मेहनत नहीं करते होंगे, ऐसी मुझे उम्मीद है। आपको किस तरहका काम मिल रहा है और आपकी और बच्चोंकी तन्दुरुस्ती कैसी है इन बातोंके बारेमें कुछ विस्तारसे जानना चाहता हूँ। मैं जानता हूँ, आप मेरे बारेमें भी कुछ सुनना चाहेंगे ।

दफ्तरका मेरा काम काफी अच्छा चल रहा है । यों दफ्तर खोले अभी कुछ ही महीने हुए हैं, किन्तु इसी अरसेमें वकालत ठीक जम गई है और काममें चयन चुनाव कर सकता हूँ। मगर सार्वजनिक काम बड़ी मेहनत चाहता है और अक्सर बहुत चिन्ताका कारण बन जाता है । फलस्वरूप मुझे इन दिनों लगभग पौने नौ बजे सवेरेसे रातके दस बजेतक काम करना पड़ता है --- कुछ घूमने और भोजनके लिए समय छोड़कर । लगातार खटना, लगातार सोचना; और फिलहाल कुछ दिनों उम्मीद नहीं है कि सार्वजनिक काम कम पड़े। अभी सरकार चालू कानूनमें सुधार करने की बात सोच रही है, इसलिए बहुत सतर्क रहना है । यह अन्दाज लगाना बहुत कठिन है कि आगे क्या होगा। ऐसी हालतमें अपनी आगेकी योजनाके बारेमें तो कह नहीं सकता । फिर भी हालतको जितना सोचता हूँ उतना ही अधिक ऐसा जान पड़ता है कि अभी कई बरस इससे अलग होना लगभग असंभव है । मैंने जो नेटालमें किया था, उसे फिर करना पड़ेगा। मगर मैंने कस्तूरबाईको जो वचन दिया था उसे पूरा करनेका सवाल है । मैंने कहा था कि या तो वर्षके अन्तमें मैं भारत लौट आऊँगा या उस समयतक तुम्हें बुलवा लूंगा। लेकिन अगर वह मुझे अपनी बातसे पीछे हटने दे और यहाँ आनेकी हठ न करे तो संभव यह है कि कुछ जल्दी देश लौट सकूं । आजकी हालतमें किसी भी तरह तीन-चार साल लौटने की बात नहीं सोच

  1. काठियावाडके प्रमुख वकील, जिन्होंने १८९१ में गांधीजीके इंग्लैडसे लौटनेपर उनके जाति-बहिष्कृत किये जानेका विरोध किया था और बादको राजकोटमें वकालतके प्रारम्भिक दिनोंमें उनकी सहायता की थी ।
  2. यह उपलब्ध नहीं है ।