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२७१. ट्रान्सवालमें मजदूरोंका प्रश्न

इस अजीब और कठिन प्रश्नमें हस्तक्षेप करनेकी हमारी जरा भी इच्छा नहीं है। इसका हल तो उन्हीं लोगोंको निकालना चाहिए जिनका उससे घनिष्ठ सम्बन्ध है । परन्तु इस दृष्टिसे कि एक बहुत बड़ी हदतक इसका असर सामान्य भारतीय सवालपर और ट्रान्सवालमें अपनी इच्छासे स्वतन्त्र व्यक्तियोंकी हैसियतसे बसे हुए ब्रिटिश भारतीयोंपर पड़ेगा और चूंकि मजदूरोंके सवालकी अक्सर भारतीयोंके सामान्य सवालके साथ खिचड़ी पका दी जाती है, इसलिए अब हम एकदम तटस्थ तमाशबीनोंकी तरह बैठे इसे चुपचाप देखते नहीं रह सकते।

श्वेत-संघ और दूसरे संघोंकी सभाओंके जो विवरण हमने पढ़े हैं, उनमेंसे हरएक विवरण मजदूरोंके प्रश्नकी चर्चा करते-करते एशियाई-विरोधी कानूनोंकी चर्चामें उतर पड़ता है, मानो एशियावासियोंको गिरमिटिया मजदूरोंकी तरह यहाँ लानेसे इनका, दूरसे दूरका ही क्यों न हो, कोई सम्बन्ध है।

केपकी संसदने अपना दो-टूक मत दे दिया है। उसने एशियाई मजदूरोंको लानेके विरोधमें सर्वसम्मतिसे प्रस्ताव मंजूर कर दिया है और उसे तार द्वारा श्री चेम्बरलेनके पास भेजनेका निर्णय भी कर लिया है। इससे उसकी तीव्र भावना प्रकट होती है । हाइडेलबर्गकी बोअरोंकी महती सभा भी लगभग इसी निर्णयपर पहुँची है । ट्रान्सवालमें जोहानिसबर्गके व्यापारियोंकी हालमें कायम की गई समितिके अध्यक्ष श्री जे० डब्ल्यू० क्विनके हस्ताक्षरोंसे प्रकाशित एक विज्ञप्तिमें भी एशियासे मजदूर लानेकी कोई भी योजना क्यों न हो, उसका दृढ़ विरोध घोषित किया गया है।

जहाँतक भारतीयोंका सवाल है, हमारा खयाल है कि वे भी केपकी संसद, हाइडेलबर्गकी सभा तथा श्री क्विनकी विज्ञप्तिमें की गई माँगसे सहमत होंगे, यद्यपि उनके कारण इनसे शायद भिन्न हों। हम इन स्तम्भोंमें स्वीकार कर चुके हैं कि यहाँ ब्रिटिशोंका वर्चस्व मतभेदसे परे है। दक्षिण आफ्रिका और विशेषतः ट्रान्सवालकी आबहवा गोरोंके प्रवास और निवासके लिए बहुत अच्छी है। इसके अलावा इस देशमें साधन-सम्पत्ति अटूट है और धनहीन अंग्रेजोंके बसने लायक जगहकी इंग्लैंडको आवश्यकता भी है। पूरे प्रश्नपर निष्पक्ष होकर सोचें तो यहाँ एशियावासियोंको सरकारी सहायतासे लानेके विरोधके बारेमें सहानुभूति न होना कठिन है -- फिर वे एशियाई चाहे भारतीय हों, चाहे चीनी, चाहे जापानी। श्री क्विनने अपनी विज्ञप्तिमें ठीक ही कहा है कि गिरमिटिया मजदूरोंकी आजादीपर चाहे कितनी ही बन्दिशें लगाइए, यदि वे स्वतन्त्र व्यक्तियोंकी हैसियतसे अपने अधिकारोंको अमलमें लानेका निश्चय कर लेंगे तो कोई कानून उन्हें एक सीमासे अधिक नहीं रोक सकेगा। इसलिए हमें इस दृष्टिकोणसे सहमत होनेमें कोई हिचकिचाहट नहीं है कि सरकारी सहायतासे एशियावासियोंका ट्रान्सवालमें प्रवास आगे चलकर गोरे निवासियोंके लिए एक बड़ा संकट बन जायेगा । यहाँके लोग धीरे-धीरे एशियाई मजदूरोंका उपयोग कर लेनेके आदी हो जायेंगे और तब ट्रान्सवालके लिए आवश्यक एक खास वर्गके गोरोंको बड़े पैमानेपर यहाँ लाना लगभग असम्भव हो जायेगा। यह इस देशके मूल निवासियोंके साथ भी अन्याय होगा। कहनेमें भले ही यह ठीक हो कि ये लोग काम ही करना नहीं चाहते; इसलिए यदि एशियाई लाये गये तो उनको देखकर इनको भी काम करनेकी प्रेरणा मिलेगी। परन्तु मनुष्य स्वभाव सर्वत्र एक-सा होता है। एक बार एशियाई मजदूर यहाँ ले आये गये तो आफ्रिका-वासियोंको कामके लिए राजी करनेके प्रयत्नोंमें ढिलाई आ जायेगी। आज तो उन्हें, भले ही सौम्यताके