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औरज रिवर उपनिवेश

ही रहा है। सैकड़ों वर्षोंसे ब्रिटेनने जिन सिद्धान्तोंको बहुमूल्य समझा और उनकी रक्षा की, उन्हें यदि ट्रान्सवाल और ऑरेंज रिवर उपनिवेशमें इसी तरह पैरों तले रौंदने दिया गया तो ऐसा लगता है कि इन उपनिवेशोंको अपना अंग बनाना साम्राज्यके लिए बहुत महँगा पड़ेगा । हमारी रायमें अगर इस नीतिको जाति और रंग-सम्बन्धी भेद-भाव तथा राग-द्वेषकी नीतिके सामने सर झुकाना पड़े, तो युद्धमें दक्षिण आफ्रिकाकी भूमिपर जो असीम धन बरबाद हुआ और खूनकी नदियाँ बहीं वह सब बेकार ही सिद्ध होगा । और फिर भी जब हम इस स्थितिको देखते हैं तब कमसे-कम भारतीय दृष्टिसे तो यही मत दिखलाई पड़ता है । और भारतीय मत, भले ही वह अच्छा समझा जाये या बुरा, सम्राट्के करोड़ों प्रजाजनोंका मत है।

ये विचार ऑरेंज रिवर उपनिवेशका ३ जुलाईका सरकारी गजट पढ़नेसे उठते हैं । पीटर्सबर्गकी नगरपालिकाने वहाँके वतनियोंके लिए जो नियम बनाये हैं वे इस गज़टके पृष्ठ १४६९ पर हमने पढ़े । माननीय स्थानापन्न लेफ्टिनेंट गवर्नर तथा उनकी कार्यकारिणीने इन्हें मंजूरी दे दी है । इनके शीर्षक देखकर शायद किसीको खयाल हो सकता है कि ये दूसरी रंगदार जातियोंपर लागू नहीं होंगे। परन्तु इन नियमोंकी २१ धाराओंको पढ़नेपर पता चल जाता है कि ये सभी रंगदार मनुष्योंपर लागू होंगे। अभी तो भारतीयोंका इन नियमोंमें दिलचस्पी लेना व्यवहारकी अपेक्षा सैद्धान्तिक महत्त्व अधिक रखता है, क्योंकि अभी इस उपनिवेशमें भारतीयोंकी आबांदी नगण्य है । परन्तु हमें आशा है कि बहुत जल्दी इस उपनिवेशके द्वार, भले ही कम संख्याके लिए हो, सम्मानित भारतीयोंके लिए खुल जायेंगे। तब इन नियमोंसे उनका सामना होगा और इनका उनपर वहीं घातक प्रभाव होगा जो ईस्ट लंदनकी नगरपालिका द्वारा बनाये गये नियमोंका वहाँकी भारतीय आबादीपर होता रहा है और जिसका जिक्र इन स्तम्भोंमें हम पहले कर चुके हैं ।

ये नियम तमाम रंगदार लोगोंको निश्चित बस्तियोंमें ही रहनेको विवश करते हैं । नगरपालिका "रंगदार जातियोंके तमाम निवासियोंकी फेहरिस्त रखेगी जिसके अन्दर प्रत्येक मनुष्यका नाम, पेशा, पशुओंका ब्यौरा, और उनके मालिकोंके नाम लिखे होंगे।" उन्हें नगर-कारकुन (टाउन क्लार्क) से पास लेने होंगे और उनके लिए सालाना १ शिलिंगका शुल्क देना होगा । बाहरसे आनेवाले तमाम रंगदार लोगोंको अड़तालीस घण्टेके अन्दर अपने नाम पंजीकृत (रजिस्टर) करा लेने होंगे। नौ बजे रातके बाद वे नगरमें घूम फिर नहीं सकेंगे । नगरपालिका जिसे चाहेगी, पशु रखनेकी इजाजत देगी और जिसे न चाहेगी, नहीं देगी । इजाजतके बगैर जो पशु रखेगा उसे प्रत्येक बड़े पशुके लिए ३ शिलिंग और प्रत्येक छोटे पशुके लिए ६ पेंस जुर्माना देना होगा। अगर कोई मेहमान आये तो नगर-कारकुनके दफ्तरमें इसकी सूचना तुरन्त जानी चाहिए। वे कुत्ते नहीं पाल सकते । नगरपालिकाकी इजाजतके बगैर बस्तीमें कोई स्कूल नहीं लगेगा और न सार्वजनिक सभाएँ होंगी ।

यह सूची अभी पूरी नहीं हुई। परन्तु नगर परिषदोंको रंगदार जातियोंपर नियन्त्रण रखने और उनकी व्यवस्थाके बारेमें जिस प्रकारकी सत्ता दे दी गई है उसका यह अच्छा-खासा नमूना है। रंगदार जातियोंमें भारतीयों आदिकी भी गिनती करनेमें यदि हम भूल कर रहे हों तो हमें उसके सुधार दिये जानेसे बड़ी प्रसन्नता होगी। परन्तु नियमोंको देखनेपर उनके इस अर्थको समझनेमें बिलकुल ही गलती नहीं जान पड़ती ।

सर मंचरजी भावनगरी और सर रेमंड वेस्ट जिन्होंने पूर्व भारत संघ (ईस्ट इंडिया असोसिएशन) के तत्वावधानमें हालमें ही हुई सभामें भाषण दिये थे, उन विनियमोंके, जिनका इस लेखमें जिक्र किया गया और उन सुझावोंके बारेमें, जो भारतीयोंकी बेड़ियोंको अधिकाधिक