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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

तथा अन्य अनेक स्वास्थ्य-शास्त्रियोंका प्रमाण हमारे पास मौजूद है, जो कहते हैं कि अगर साधारण नियन्त्रण और देखभाल रहे तो भारतीय वर्गके रूपमें अपने शरीर, और बस्तियोंको दूसरोंकी अपेक्षा अधिक साफ-सुथरा रख सकते हैं।[१] इस प्रकार सब दृष्टियोंसे विचार करनेपर यही सिद्ध होता है कि बॉक्सबर्गके इन सज्जनोंने जो पक्ष ग्रहण कर रखा है वह सर्वथा अमान्य है । विवरणमें हमने यह भी पढ़ा कि अगर ट्रान्सवालमें एशियाइयोंको लाना जरूरी हो तो फिर चीनियोंको लाया जाये । संघके इस निर्णयपर हम उसे हार्दिक बधाई देते हैं । और इस आशासे उसके स्वरमें स्वर मिलाते हैं कि वह ट्रान्सवालमें भारतसे गिरमिटिया मजदूरोंको लानेका समर्थन कभी नहीं करेगा। इस उपनिवेशमें भारतीयोंके खिलाफ जो व्यापक विद्वेष फैला हुआ है उसे हम खूब जानते हैं । इसलिए हम हरगिज नहीं चाहते कि भारतीयोंको गिरमिटिया मजदूरोंके रूपमें हजारोंकी संख्यामें ट्रान्सवालमें लाया जाये। उनके यहाँ आये बिना ही समस्या बड़ी जटिल है । जैसा कि हम पहले कह चुके हैं, यदि यह उपनिवेश भारतीय मजदूरोंको यहाँ लानेका समष्टि रूपसे भी समर्थन करे, तो भी भारत सरकार आड़े आयेगी और प्रस्ताव अस्वीकार कर देगी ।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २३-७-१९०३

२८६. एहतियात या उत्पीड़न?

ट्रान्सवालमें अब कहीं प्लेग नहीं है । फिर भी ट्रान्सवालकी हुकूमत भारतीय शरणार्थियोंपर रोक लगाये हुए है, जब कि वे अपनी-अपनी जगह लौट जाना चाहते हैं। सचमुच यह हमारी समझमें नहीं आ रहा है । यह अंकुश सरासर इतना गैर-जरूरी है कि विश्वास नहीं होता कि यह सार्वजनिक स्वास्थ्यके हित और एहतियातके रूपमें लगाया गया है। और फिर यह रोक केवल ब्रिटिश भारतवासियोंपर ही क्यों ? हमें ज्ञात हुआ है कि कुछ ब्रिटिश भारतीयोंने सरकारसे प्रार्थना की है कि उन्हें ट्रान्सवालमें आनेसे सर्वथा रोका न जाये । जो शरणार्थी अथवा दूसरे लोग लौटना चाहते हैं, वे फोक्सरस्टमें सूतक (क्वारंटीन)में रहनेको तैयार हैं। वैसे, जब कोई कारण नहीं है तब सूतक मंजूर करना हमें एकदम निरर्थक लगता है । परन्तु यह प्रार्थना भी मंजूर नहीं की गई। तब, जान पड़ता है, यह एहतियात नहीं, उत्पीड़न है । हमें तो यही विश्वास हो रहा है कि यह रोक सर्वसाधारणके हितके लिए इतनी नहीं है जितनी दुर्भावग्रस्त जनताको खुश करनेके लिए है। ब्रिटिश भारतीयोंको न जाने देनेका यह केवल एक बहाना है। श्री चेम्बरलेनने कहा था कि एशियाई-विरोधी कानूनोंका अमल ट्रान्सवालमें पहलेकी अपेक्षा अधिक उदारताके साथ किया जा रहा है । हम यह निर्विवाद तथ्य उनकी सेवामें पेश करते हैं कि पिछली हुकूमतके जमानेमें ट्रान्सवालके द्वार ब्रिटिश भारतीयोंके लिए एकदम खुले थे। और अगर वे सैकड़ों नहीं, हजारोंकी संख्यामें आना चाहते तो आकर यहाँ बस सकते थे। उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती । किन्तु अब आज उनकी अपनी सरकारके राज्यमें भारतीय अपने लिए इस उपनिवेशके दरवाजे बन्द पाते हैं । यह सच है कि केप टाउन या डेलागोआबेसे आनेवाले शरणार्थियोंको बहुत थोड़ी संख्यामें कभी-कभी प्रवेश मिल जाता है । परन्तु इन्हें भी अपने कामको सँभालनेके लिए जानेका अधिकार मिलनेमें महीनों लग जाते हैं ।

  1. देखिए खण्ड १, पृ४ २०६ ।